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विकृतिविज्ञान च्छद का मलवा भी मिलता है ये तीनों मिलकर कणात्मक निर्मोक ( granular casts ) बनाते हैं।
३. अन्तरालित ऊति में थोड़ा शोथ होने के अतिरिक्त कोई विशेष परिवर्तन नहीं देखा जाता । व्रणशोथकारी कोशा इस भाग में इतस्ततः छोटे छोटे समूह बना कर पड़े हुए मिलते हैं । बड़ी वाहिनियों पर उनका कोई प्रभाव नहीं देखा जाता।
४. व्रणशोथकारी कोशा जिनमें अधिकांश बहुन्यष्टि सितकोशा और थोड़े लसीकोशा सम्मिलित होते हैं आदिनावर में आहत वृकजूटों के चारों ओर संचित हो जाते हैं। आदिप्रावर के अधिच्छद में बहुत काल तक कोशाओं का प्रगुणन होता हुआ नहीं देखा जाता।
प्रसर जूटिकीय वृकपाकी के मन में निम्न विशेषताएं देखी जाती हैं :१. मूत्र की मात्रा बहुत कम होती है तथा कभी कभी तो बिल्कुल नहीं होती। २. उसका आपेक्षिक भार स्वाभाविक से अधिक होता है।
३. देखने में मूत्र का वर्ण धूमिल ( smoky ) होता है जिसका कारण उसमें रक्त की उपस्थिति है।
४. मूत्र में शिवति या शुक्लि (albumin ) पाया जाता है जिसकी मात्रा बहुत अधिक रहती है।
५. मथित्रित पदार्थ (centrifuged deposit) में रक्त के लाल कण, बहुन्यष्टि सितकोशा और अनेक कणात्मक तथा काचर निर्मोक मिलते हैं।
तीव्र वृकपाकी कोई ही कालकवलित होता है अर्थात् प्रायः सभी बच जाते हैं। जब रोग गम्भीरस्वरूप लेकर आता है तो उसका आक्रमण सहसा होता है साथ में ज्वर, रक्तमेह और वृक्क कार्याभाव ( renal failure ) होने से मूत्ररक्तता (uraemia) की स्थिति बन जाती है। जब रोग अधिक गम्भीरस्वरूप लेकर नहीं आता तब उसका प्रारम्भ धीरे धीरे होता है, साथ में शिरःशूल, वमी तथा कुछ शोफ (oedema) देखा जाता है। यह शोफ बहुत अल्प होता है। इसका कारण यह है कि कफरतीय हृषकरण के कारण सम्पूर्ण शरीर की केशिकाएँ उसी प्रकार सूज जाती हैं या प्रभावित होती हैं जैसे कि वृक्क की। जिसके कारण उनकी प्राचीरों में से प्रोभूजिनों के लिए प्रवेश्यता हो जाती है। इसके कारण कुछ शोथ देखा जाता है।
तीव्र प्रसर जूटिकीय वृक्कपाक में निम्न लक्षण विशेष करके देखे जाते हैं:१. कटिशूल तथा पृष्ठशूल। २. रक्तमेह ।
३. शोफ । ४. ज्वर ।
५. रक्तनिपीडाधिक्य । अनुतीव्र अवस्था-इस अवस्था के २ प्रकार होते हैं१. केशाल बाह्य प्रकार ( extra capillary type ) २. केशालान्तर प्रकार ( intra capillary type )
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