________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यक्ष्मा
५५३
के द्वारा ही मिलें परन्तु इन यक्ष्माओं के साथ सामान्य श्यामाकसम यक्ष्मा भी विकसित हो ऐसा नहीं देखा जाता । अतः इन दोनों के अन्तर को जान लेना बहुत लाभदायक है यद्यपि ग्रीन इस रोग को यमदण्डाणुरक्तता का ही एक रूप मानता है और दोनों मैं कोई विशेष अन्तर करना आवश्यक नहीं समझता ।
यह रोग दण्डाणु की मात्रा के अनुसार चलता है। यदि किसी प्राणी के रक्त में हम अधिक संख्या में उन्हें पहुँचा दें तो उसे तुरत श्यामाकसम तीव्र यक्ष्मा हो जावेगी । यदि कोई किलाटीय ग्रन्थि अपना सब पदार्थ किसी वाहिनी में छोड़ दे तो भी फुफ्फुस में यह रोग हो जावेगा । यदि वह पदार्थ निरन्तर वाहिनी में छूटता रहे तब तो निस्सन्देह यह रोग बन जावेगा । शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को दबाकर सर्वत्र इस रोग के सक्रिय विक्षत उत्पन्न हो जाते हैं ।
तीव्र श्यामाकसम यक्ष्मा में फुफ्फुसों में अत्यधिक रक्ताधिक्य हो जाता है तथा उनमें असंख्य सूक्ष्म यदिमका जड़ जाती हैं । ये यच्मिका इतनी सूक्ष्म होती हैं जितना कि सवाँ ( श्यामाक ) नामक धान्य होता है इसी कारण इन्हें श्यामाकसम नाम दिया गया है । अंगरेजी का 'मिलियरी' शब्द भी उसी आधार पर बना है । यचिमकाएँ. हाथ में वीक्ष ( lens ) लेकर देखी जा सकती हैं । कुछ जो १-२ मि. मी. व्यास की होती हैं फुफ्फुसच्छद के नीचे से स्वयं चमकती हैं ।
1
प्रारम्भिक विक्षत धूसर वर्ण के तथा पारभासी होते हैं जो उनमें किलाटीयित हो जाते हैं वे पीत और पारान्ध हो जाते हैं ।
तीव्र श्यामाकसम यचमा एक सर्वाङ्गीण रोग है । पर जब कोई किलाटीय विक्षत किसी फुफ्फुसीय धमनी की शाखा में फूटती है तब वह केवल फुफ्फुस में ही मिलता है ।
अण्वीक्ष में देखने पर सम्पूर्ण फुफ्फुसक्षेत्र में असंख्य श्यामाकसम यमिकाएँ फैल जाती हैं । वे रक्तवाहिनियों तथा श्वसनिकाओं की प्राचीरों में, अन्तर्खण्डीय पटियों में तथा वायुकोशाओं के बीच-बीच में सर्वत्र पाई जाती हैं । वायुकोशाओं में प्रसेकी कोशा भर जाते हैं जिसके कारण संपिंडन के छोटे-छोटे क्षेत्र बन जाते हैं जो कुछ काल पश्चात् किलाटीय हो जाते हैं ।
कभी-कभी यह रोग जीर्णस्वरूप भी धारण कर लेता है और इसके विक्षतों का रोपण तन्तूरकर्ष द्वारा हो जाता है । इसे हम जीर्णप्रसरित यक्ष्मा (chronic disseminated tuberculosis ) कह सकते हैं। इसमें सम्पूर्ण फुफ्फुस में तान्तव क्षेत्र फैल जाते हैं इन क्षेत्रों में से कुछ में उपसर्ग सक्रिय रूप में भी मिल सकता है जब कि अन्त्रों में उपसर्ग बिल्कुल भी नहीं मिलता। इस रोग का मूल फुफ्फुसबाह्य ( extrapulmonary ) होता है । जो अस्थियों, लसग्रन्थिकों या मूत्रप्रजननसंस्थान में उपसर्ग होने के कारण वहाँ कहीं से भी छोटी-छोटी मात्रा में आता है । ये मूत्रविक्षत वर्षो गुप्त रहकर यमदण्डाणुरक्तता या विस्थायि विज्ञत उत्पन्न कर सकते हैं । तान्तवक्षेत्रों के चारों ओर वायुकोशाभिस्तरण ( emphysema ) ४७, ४८ वि०
For Private and Personal Use Only