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अग्नि वैकारिकी
१८१ जब यह वातिक होती है तो इसके साथ शूल होता है, पैत्तिक में दाह पाया जाता है तथा कफज में कफ आता है । रक्तज प्रवाहिका में मल के साथ रक्त जाता है। यह स्नेहप्रभवा, रूहप्रभवा तथा तु शब्द से मधुकोश व्याख्याकार के मत से तीक्ष्णोष्णप्रभवा होती है। स्नेहप्रभवा में कफ का, रूक्षप्रभवा में वात का और तीक्ष्णोष्णप्रभवा में पित्त अथवा तथा रक्त का बाहुल्य होता है। इसके लक्षण, चिकित्साक्रम, पक्कापक्वता सभी अतीसार के अनुसार होते हैं।
वास्तविकता यह है कि अतीसार का वह रूप प्रवाहिका नाम से प्रसिद्ध है जिसमें बार बार ऐंठन के साथ थोड़ा थोड़ा मल आता है । फिर चाहे दोषानुसार उसमें शूल, दाह, कफाधिक्य, पित्ताधिक्य या रक्तोपस्थिति हो या न हो । मुख्यतः इसका कारण वातिक ( nervous ) है और कफदोष वात के इङ्गितों पर नाचने को बाध्य होकर ही यह स्थिति पैदा कर देता है।
ग्रहणी अतिसारे निवृत्तेऽपि मन्दाग्नेरहिताशिनः । भूयः सन्दूषितो वह्निर्ग्रहणीमभिदूषयेत् ॥
मन्दाग्नि से पीडित, अहित द्रव्यों के सेवन में तल्लीन रोगी के अतिसार के निवृत्त हो जाने पर या स्वतन्त्रतया भी अथवा अतिसार चलता हुआ रहे तब भी उसकी पाचकाग्नि अत्यधिक दूषित होकर ग्रहणी को दूपित कर देती है और ग्रहणी या संग्रहणी रोग का कारण बनती है।
__ अग्नि की महत्ता ग्रहणी रोग अग्नि के दूषित होने से ही बनता है । यह अग्नि ११ की हेतु चरक ने बतलायी है
आयुर्वर्णो बलं स्वास्थ्यमुत्साहोपचयौ प्रभा । ओजस्तेजोग्नयः प्राणाश्चोक्ता देहाग्निहेतुकाः ॥ १. आयु (चेतनानुवृत्ति) २. वर्ण (गौरकृष्णादि) ३. बल (शक्ति)
४. स्वास्थ्य (समदोषादिजन्य) ५. उत्साह (दुष्कर कार्य में भी अध्यवसाय की प्रवृत्ति) ६. उपचय (देहपुष्टि)
७. प्रभा (कान्ति) ८. ओज ( सर्वधातुसार) ९. तेज (शुक्र) १०. पञ्चभूताग्नियाँ तथा ११. पञ्चवायु (प्राणापानादि)
उपर्युक्त ११ शरीरस्थ पाचकाग्नि के द्वारा घटने-बढ़ने वाले हैं। ध्यान देने की बात यह है कि अग्निसन्दीपक ओषधियोगों का यहाँ उल्लेख न करके मानवशरीर में ही निहित इन स्थितियों की ओर इङ्गित किया गया है जो शरीराग्नि के वास्तविक कारण हैं। यह नित्य के देखने की बात है कि जिसका स्वास्थ्य ठीक है उसकी अग्नि भी प्रबल है। तेजस्वी तथा ओजस्वी व्यक्ति अधिक भोजन करता है और उसका भोजन सरलतया पच जाता है। उत्साह से परिपूर्ण व्यक्ति की अग्नि अधिक प्रबल होती है । पञ्चभूताग्नियाँ तथा सप्तधात्वग्नियाँ भी देहादि की समावस्था के लिए कारणभूत होती हैं तथा वायु के बिना अग्नि पनप ही नहीं सकती,
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