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रोगापहरणसामर्थ्य
प्राकृतक्षमता
प्राकृतक्षमता आभ्यन्तरशक्ति का नाम है । यह एक प्रकार की उच्च प्रतिरोधात्मक शक्ति है जो किसी प्रजाति ( race ) या व्यक्ति (individual) या जाति (species) में स्वतः ही पाई जाती है ।
कुछ जातियों के प्राणियों में एक रोग नहीं होता पर दूसरी जातियों में मिलता है। प्रथम जातियों में उस रोग के प्रति क्षमता है परन्तु द्वितीय जातियाँ उन रोगों को ग्रहण करती हैं । उदाहरण के लिए राजयक्ष्मा शूकर- वस्सों और गार्यो, में तो होती है पर आवि, अजा, अश्व और गर्दभों में प्रायः राजयक्ष्मा नहीं पाई जाती । जातियों को यक्ष्मा - ग्राह्य ( susceptible to tuberculosis ) तथा इतर जातियों को यच्माक्षम ( Immune to tuberculosis ) कहा जाता है ।
प्रथम
कुछ मानवीय प्रजातियाँ ( human races ) कुछ रोगों के लिए तम होती हैं। उदाहरण के लिए निग्रा पीतज्वर के लिए क्षम होते हैं परन्तु श्वेतप्रजातियाँ पीतज्वर ग्राह्य होती हैं ।
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इसी प्रकार कुछ व्यक्ति विशेष किसी एक रोग के लिए क्षम और कुछ ग्राह्य होते हैं । कतिपय बंगालीजन विषमज्वर के लिए जितने क्षम होते हैं उतने वहां पर प्रवास करने वाले इतरप्रदेशीयजन नहीं ।
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अवाप्तक्षमता
अवाक्षमता दो प्रकार की होती है। इनमें एक सचेष्ट अवाप्तक्षमता ( active acquired immunity ) तथा दूसरी निश्चेष्ट क्षमता ( passive acuqired inmmunity ) कहलाती है ।
सचेष्ट अवाप्तक्षमता —- यदि किसी व्यक्ति को एक बार फुफ्फुसपाक (न्यूमोनिया) हो जावे तो आगे भी उसे जितने बार रोग का संक्रमण होगा, फुफ्फुसपाक हो सकता है । परन्तु यदि उसी व्यक्ति को एक बार मसूरिका हो जावे तो फिर जीवन में दूसरी बार मसूरिका से पीडित होने का उसे अवसर नहीं आवेगा । उस उदाहरण से उस व्यक्ति में मसूरिका के लिए अवाप्तक्षमता का उदय हुआ ऐसा कहा जायगा । प्रत्यक्ष रोग के कारण वा रोग के कुछ जीवाणुओं का शरीर में प्रवेश करके उस रोग के प्रति जो प्रतिरोधात्मक शक्ति शरीर में उत्पन्न हो जाती है या की जाती है वह सचेष्ट अवातक्षमता कहलाती है । मसूरीकरण ( vaccination ) द्वारा मसूरिका के विषाणु at faष्ट करके बालकों में जिस अवाप्तक्षमता को उत्पन्न किया जाता है वह भी सचेष्ट अवातक्षमता ही है । विद्वानों का कथन है कि वयस्कों की अधिकांश प्राकृत क्षमता वास्तव में एक प्रकार की सचेष्ट अवाप्तक्षमता ही है क्योंकि रोग के विविध जीवाणु अल्पाल्प मात्रा में अचेनता में ( unconsciously ) मनुष्य में प्रवेश करते रहते हैं । रोग के जीवाणु अनन्त हैं, उनसे बचना सम्भव नहीं होता अतः शरीर के विविध कोषाओं पर मुख, नासा, नेत्र, गुद, उपस्थ, त्वचा, श्वास आदि द्वारा उनका आघात होता रहता है । शरीर के कोशा उनसे परिचय कर उनका प्रतिरोध करने की क्षमता