________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०६६
विकृतिविज्ञान
४०-चमकीलव्यानो गृहीत्वा श्लेष्माणं करोत्यर्शस्त्वचो बहिः। कीलोपमं स्थिरखरं चर्मकीलं तु तं विदुः॥ वातेन तोदः पारुष्यं पित्तादसितरक्तता। श्लेष्मणा स्निग्धता तस्य ग्रथितत्वं सवर्णता ॥
(अ. हृ. नि अ.७) कील के समान स्थिर और खर बाह्य त्वचा पर निकले हुए अर्श जो व्यान वायु के द्वारा श्लेष्मा को ग्रहण करके बनते हैं चर्मकील कहलाते हैं उनमें वात से तोद और परुषता, पित्त से गहरा लाल वर्ण और कफ से उनका गांठदार, सवर्ण और स्निग्ध होना पाया जाता है।
४१-चिप्पनखमांसमधिष्ठाय वायुः पित्तं च देहिनाम् । कुर्वाते दाहपाकौ च तं व्याधि चिप्पमादिशेत् ॥
(सु. नि. १३) नख में स्थित मांस में अधिष्ठित होकर जव मनुष्यों के वायु और पित्त दाह एवं पाक की उत्पत्ति करते हैं तो उस व्याधि को चिप्प कहा जाता है।
४२-छर्दिदोषानुदीरयन् वृद्धानुदानो व्यानसङ्गतः। ऊर्ध्वमागच्छति भृशं विरुद्धाहार सेवनात् ॥ ( सुश्रुत )
अतिशय विरुद्धाहार सेवन करने से प्रकुपित हुए दोषों को जब व्यान वायु के साथ उदान वायु ऊपर की ओर तेजी से ले आती है तो यह अवस्था वमन कहलाती है।
४३-जलोदरस्नेहपीतस्य भन्दाग्नेः क्षीणस्यातिकृशस्य च। अत्यम्बुपानान्नष्टेऽग्नौ मारुतः क्लोम्न्यवस्थितः ।। स्रोतःसु रुद्धमार्गेण कफश्चोदकमूच्छितः । वर्द्धयेतां तदेवाम्बु स्वस्थानादुदरायतौ ॥
अत्यन्त क्षीण और कृश मन्दाग्नि से व्यथित स्नेह का जिसने प्रयोग किया हुआ है उसके अत्यधिक द्रव पदार्थों के सेवन से जब अग्नि नष्ट हो जाती है तब क्लोमस्थित वायु कुपित होकर स्रोतसों और मागों का अवरोध करके कफ जलीयांश को मूछित करके वे दोनों अपने स्थान से उदर रोग के लिए बढ़ा देते हैं। इस प्रकार उदर रोग की उत्पत्ति में रोगी के स्नेहन कर्म का बिगड़ना, अग्नि का मन्द होना, रोगी का कृश हो जाना, तरल द्रव्यों का अतिशय सेवन तथा वायु और कफ के द्वारा उदकवह स्रोतसों का अवरुद्ध किया जाना मुख्यतया देखा जाता है।
४४-ज्वरसंसृष्टाः सन्निपतिताः पृथग वा कुपिता मलाः। रसाख्यं धातुमन्वेत्य पक्तिं स्थानानिरस्य च ।। स्वेन तेनोष्मणा चैव कृत्वा देहोष्मणो बलम् । स्रोतांसि रुद्ध्वा संयाताः केलं देहमुल्वगाः ।। सन्तापमधिकं देहे जनयन्ति नरस्तदा । भक्त्यत्युष्णसर्वाङ्गो ज्वरितस्तेन चोच्यते। स्रोतसां संविबद्धत्वात् स्वेदं ना नाधिगच्छति । स्वस्थानात् प्रच्युते चाग्नौ प्रायशस्तरुणे ज्वरे ।
प्रकुपित हुए वातपित्त कफ ये तीनों दोष अकेले-अकेले, दो-दो मिलकर अथवा तीनतीन एकत्र होकर रस नामक धात्वाहार परिणामरूप आद्य धातु का अनुगमन करके उसकी अग्नि (रसस्थ रसाग्नि रूप जाठराग्नि) को अपने स्थान से निकालकर बाहर की
ओर उत्क्षिप्त कर देते हैं। उस बाहर फेंकी हुई ऊष्मा के साथ देहोष्मा मिलकर और भी उत्तप्त हो जाती है। दूसरा कार्य ये कुपित दोष स्रोतों (पुरीष-मूत्र-स्वेदादिवाही स्रोतसों) के अवरोध का करते हैं। जिसके कारण शरीर में सन्ताप ( Temperature ) बढ़ जाता है तथा अधिक देर तक स्थायी रूप में बढ़ा हुआ रहता है। सर्वाङ्ग के इस प्रकार अत्युषण
For Private and Personal Use Only