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सम्प्राप्तिविमर्श
१०७५
सर्वलिङ्गां पिडकां जनयति । सास्य तोददाहकण्ड्वादीन् वेदनाविशेषान् जनयति, अप्रतिक्रियमाणा च पाकमुपैति व्रणश्च नानाविधवर्णमात्रावं स्रवति पूर्णनदीशम्बूकावर्त्तव छात्र समुत्तिष्ठन्ति वेदनाविशेषाः तं भगन्दरं शम्बूकावर्त्तमित्याचक्षते । (सु. नि. स्था. )
न केवल वायु ही अपि तु जब पित्त और श्लेष्मा भी प्रकुपित होकर गुद प्रदेश में पाना कुठप्रमाण की सर्वलक्षणयुक्त पिडका उत्पन्न कर देते हैं जिसके कारण उसमें विविध वेदनाएँ होती हैं । चिकित्सा न करने से उसमें पाक हो जाता है । व्रण से नानाविध स्राव होता है नदी में स्थित शंख के आवर्तों के समान इसमें आवर्त बन जाते हैं । इस वेदना विशिष्ट भगन्दर को शम्बूकावर्त कहते हैं ।
८४ - शूल वायुः कुपितः प्रकरोति शूलम्
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हृत्कण्ठपार्श्वे सकफः सपित्तः हृन्नाभिमध्ये कफपित्तशूलः ।
तौ च नाभौ प्रकरोति पीडां देहेऽखिले यः स तु वातपित्तात् ॥ ( हा. तू. स्था. ) साधारणतया वायुशूल का कारण माना गया है । कफ के कारण हृदय-कण्ठ-पार्श्व प्रदेश में शूल होता है। पित्त से, हृदय से नाभि तक मध्य भाग में शूल उत्पन्न होता है । कफ और पित्त मिलकर बस्ति तथा नाभि में शूल करते हैं । तथा सर्वांग शरीर में शूल की उत्पत्ति वात और पित्त से होती है ।
८५-- शोथ या शोफ
रक्तपित्तकफान् वायुर्दुष्टो दुष्टान् बहिः सिराः । नीत्वा रुद्धगतिस्तैर्हि कुर्यात्त्वमांससंश्रयम् ॥ उत्सेधं संहतं शोफं तमाहुनिंचयादतः ॥ ( अ.हृ. नि. )
दोष प्रकोपक कारणों से, अभिघात से या विष लग जाने से दुष्ट हुआ वायु रक्त, पित्त और कफ को बाहरी सिराओं में ले जाकर और उनसे अवरुद्ध होकर त्वचा और मांस में आश्रित होकर सबके सञ्चित होने से उत्सेधयुक्त शोथ को उत्पन्न करता है । इसी को दूसरे शब्दों में चरक ने इस प्रकार व्यक्त किया है
बाह्याः सिराः प्राप्य यदा कफासृपित्तानि सन्दूषयतीह वायुः । तैर्बद्धमार्गः स तदा विसर्पन्नुत्सेद्धलिङ्गं श्वयथुं करोति ॥ ८६- श्लीपद
कुपितास्तु दोषा वातपित्तश्लेष्माणोऽधः प्रपन्ना वङ्क्षणोरुजानुजङ्घास्ववतिष्ठमानाः कालान्तरेग पादमाश्रित्य शनैः शोफं जनयन्ति तं श्लीपदमित्याचक्षते । (सु. नि. स्था. )
वातपित्तकफ तीनों दोष प्रकुपित होकर नीचे की ओर वंक्षण, ऊरु, जानु, जङ्घा में स्थित होकर ओर फिर कालान्तर में शनैः शनैः पैर को आश्रय बना जिस शोफ को उत्पन्न करते हैं उसको श्लीपद कहा जाता है ।
८७- श्वास
यदा स्त्रोतांसि संरुध्य मारुतः कफपूर्वकः । विष्वग्व्रजति संरुद्धस्तदा श्वासान् करोति सः ॥ (सु. उ. तं.)
जब प्राणोदानवाही स्रोतों का संकोच करके कफयुक्त कुपित वात दोष अवरुद्ध होकर इतस्ततः चारों ओर (फुफ्फुसों में ) घूमता है तब वह श्वास को उत्पन्न कर देता है ।
८८ – श्वित्र—
कुष्ठैकसम्भव श्वित्रं किलासं चारुणं च तत् । निर्दिष्टमपरिस्रावि त्रिधातूद्भवसंश्रयम् ॥ ( अ. सं. नि. )
कुष्ठ के ही सदृश श्वित्र या किलास को उत्पत्ति होती है । वह अरुणवर्ण का, खावरहित और त्रिधातु से उत्पन्न होता है । त्रिधातु से वात पित्त कफ तीनों दोष तथा रक्तमांस मेद तीनों दूष्य लिए जाने चाहिए ।
८९ - सततज्वर
दोषो रक्ताश्रयः प्रायः करोति सततज्वरम् । अहोरात्रस्य स द्विः स्यात् ॥ ( अ. सं. नि. स्था. )
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