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विकृतिविज्ञान
रक्तधातु में आश्रय पाकर कुपित वातादि दोष प्रायशः सतत ज्वर के कारण बनते हैं । यह २४ घण्टों में दो बार चढ़ता है ।
९०- संन्यास
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वाग्देहमनसां चेष्टामाक्षिप्यातिबला मलाः । सन्न्यासं सन्निपतिताः प्राणायतनसंश्रयाः ॥ कुर्वन्ति तेन पुरुषाः काष्ठी भूतो मृतोपमः । म्रियेत शीघ्रं शीघ्रं चेच्चिकित्सा न प्रयुज्यते ॥ (अ.सं.नि.स्था.) एक कार्योद्यत वात, पित्त और कफ अति प्रबल होकर प्राणवाही स्रोतों का आश्रय लेकर जब वाणी, शरीर और मन की चेष्टाओं को आक्षिप्त कर देते हैं तब व्यक्ति काष्ठ के समान मृत जैसा हो जाता है । यदि उसकी तुरत चिकित्सा न प्रारम्भ कर दी जावे तो उसके मरने की बहुत सम्भावना रहती है। इसे सन्न्यास कहते हैं । ९१ - सिराजग्रन्थि -
व्यायामजातैरबलस्य तैस्तैराक्षिप्य वायुहिं सिराप्रतानम् । सम्पीड्य सङ्कोच्य विशोष्य चापि ग्रन्थि करोत्युन्नतमाशुवृत्तम् ॥ ग्रन्थिः सिराजः स तु कृच्छ्रसाध्यो भवेद् यदि स्यात् सरुजश्चलश्च ।
अरुक् स एवाप्यचलो महांश्च मम्मत्थितश्वापि विवर्जनीयः ॥ ( सु. नि. स्था. ) दुर्बल के द्वारा व्यायाम किया जाने पर कुपित वायु उसके सिरा प्रतान का आक्षेप करके उसका पीड़न करके, सङ्कुचित करके तथा सुखा कर एक उन्नतवृत्ताकारी ग्रन्थि को शीघ्र बना देता है । यह सिराज ग्रन्थि शूलयुक्त और स्पन्दनयुक्त होने पर कष्टसाध्य होती है । शूल रहित, अचल, बड़ी और मर्म में उत्पन्न भी वर्जनीय है ।
९२ - स्तनरोग
सक्षीरौ वाऽप्यदुग्धौवा प्राप्य दोषः स्तनौ स्त्रियाः । प्रदूष्य मांसरुधिरं स्तनरोगायक ल्पते ॥ ( मा.नि.) दुग्ध होने पर या विना दुग्ध के जब कुपित दोष स्त्री के स्तनों में प्राप्त हो जाते हैं तो वे वहाँ पर रुधिर और मांस को दूषित करके स्तनरोग ( स्तनपाक ) उत्पन्न कर देते हैं । ९३ – स्वरभेद -
अत्युच्चभाषणविषाध्ययनाभिघातसन्दूषणैः प्रकुपिताः पवनादयस्तु ।
स्रोतःसु ते स्वरवहेषु गताः प्रतिष्ठां हन्युः स्वरं भवति चापि हि षड्विधः सः ।। (सु.उ.तं ) उच्च स्वर से भाषण देने से, विष के प्रभाव से, उच्च स्वर से पढ़ने से, चोट से इन सब दूषणकर्ता कारणों से कुपित हुए वातादिक दोष स्वरवाही स्रोतों में स्थित होकर स्वर नष्ट कर देते हैं । यह स्वर भेद ६ प्रकार का होता है ।
९४- -हिक्का
मारुतः प्राणवाहीनि स्रोतांस्याविश्य कुप्यति । उरस्तः कफमुद्ध्य हिक्का श्वासान् करोत्यथ ॥ । (च. चि. स्था. )
घोरान् प्राणोपरोधञ्च प्राणिनां पञ्च पञ्च च वायु जब प्राणवाही स्रोतों को प्राप्त कर कुपित होती है और उर में स्थित कफ को ऊपर को लाती है तो वह हिक्का और श्वास के घोर प्राणों का उपरोध करने में समर्थ पाँचपाँच प्रकार वाले रोगों को प्राणियों में उत्पन्न कर देती है । इस प्रकार श्वास तथा हिक्का की एक ही सम्प्राप्ति आचार्यों ने लिखी है ।
९५ - हृद्रोग
दूषयित्वा रसं दोषा विगुणा हृदयं गताः । हृदि बाधां प्रकुर्वन्ति हृद्रोगं तं प्रचक्षते ॥ (सु.उ. त.) विविध कारणों से विगुणित हुए दोष जब हृदय में पहुँचकर रस को दूषित करके हृदय में स्थित कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं तब उसको हृद्रोग कहा जाता है I
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