Book Title: Abhinav Vikruti Vigyan
Author(s): Raghuveerprasad Trivedi
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 1162
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०७४ विकृतिविज्ञान रक्त- लसीका - त्वचा - मांस आदि दूष्य तथा तीनों दोष मिलकर सप्तधातुओं में प्रसर्पणकारी जिस रोग को उत्पत्ति करते हैं वह विसर्प कहलाता है । ७९:- विसूची विविधैर्वेदनाभेदेर्वाय्वादेर्भृशकोपतः । सूचीभिरिव गात्राणि भिनत्तीति विसूचिका ॥ ( मधुकोश ) प्रवरतीरुजातु विसूचिका भवति गौरिव योऽत्ति निरन्तरम् । बहुतरान्नमजीर्णमतोऽस्य तत् ॥ ( कल्याणकारक ) गाय के समान निरन्तर बहुत सा अन्न भक्षण करने से उत्पन्न अजीर्ण के कारण वातादिक दोषों के कुपित होने से विविध तीव्र वेदनाओं से युक्त सूची के समान भेदनवत् पीडा उत्पन्न करने के कारण विसूचिका कहलाती है । ८०- - विस्फोट त्वचमाश्रित्य ते रक्तमांसास्थीनि प्रदूष्य च । घोरान् कुर्वन्ति विस्फोटान् सर्वान् ज्वरपुरःसरान् ॥ ( माधव ) दुष्ट हुए दोष त्वचा में आश्रित होकर रक्त, मांस, अस्थ्यादिक धातुओं को दूषित करके ज्वरपूर्वक घोर विस्फोटों की उत्पत्ति करते हैं । ८१ - वृद्धि - अथ प्रवृत्तोऽन्यतमोऽनिलादिषु प्रदुष्टदोषः फलकोशवाद्दिनीम् । समाश्रितोऽसौ पवनः समन्ततः करोति शोफं फलकोशयोरिव ॥ ( कल्याणकारक ) क्रमाच्च दोषै रुधिरेण मैदसा प्रभूतमूत्रान्त्रनिमित्ततोऽपि वा । सनामधेया वृषणाभिवृद्धयो भवन्ति पुंसामिह सप्तसंख्यया ॥ वातादिक में से कोई भी एक दोष प्रकुपित होकर अण्डकोश को जानेवाली वाहिनी को वायु के सहारे आश्रय करता है तो जो दोनों कोशों में शोफ उत्पन्न हो जाता है वह tusवृद्धि कहलाती है वात, पित्त, कफ, रक्त, मेद, मूत्र अथवा अन्त्र के कारण क्रमानुक्रम से पुरुषों में सात प्रकार की वह वृषणवृद्धि हुआ करती है । ८२ - शतपोनक- तत्रापथ्यसेविनां वायुः प्रकुपितः सन्निवृत्तः स्थिरीभूतो गुदमभितोऽङ्गुले द्वयङ्गुले वा मांसशोणिते प्रदूष्यारुणवर्णी पिडकां जनयति । साऽस्य तोदादीन् वेदनाविशेषान् जनयति, अप्रतिक्रियमाणा च पाकमुपैति, मूत्राशयाभ्यासगतत्वाच्च व्रणः प्रक्लिन्नः शतपोनक बदणुमुखैरिछद्रैरापूर्यते तानि च छिद्राणि अजस्रं फेनानुविद्धं अधिकमास्रावं स्रवन्ति, व्रणश्च ताड्यते भिद्यते छिद्यते सूचीभिरिव निस्तुद्यते गुदद्भावदीर्यते, उपेक्षिते च वातमूत्रपुरीषरेतसामप्यगमश्च तैरेवच्छिद्रैर्भवति तं भगन्दरं शतपोनकमित्याचक्षते । (सु. नि. स्था. ) I कुपथ्य सेवन करनेवालों की कुपित हुई वायु निकलते समय गुद के एक या दो अंगुल के मांसरक्त के क्षेत्र में स्थिर होकर उसे दूषित करती हुई पिडका उत्पन्न करती है । जिसके कारण तोदादि वेदना उत्पन्न होती है । इस पिडका की चिकित्सा यदि न की गई तो वह पक जाती है मूत्राशय से क्लेदांश प्राप्तकर वह व्रण प्रक्लिन्न हो जाता है । उसमें शतपोनक के समान कई सूक्ष्म छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं उन छिद्रों से धारारूप फेनयुक्त खूब आस्राव ( discharge ) निकलता है । इस व्रण में विविध प्रकार की पीड़ा होती है । यह गुदप्रदेश को विदीर्ण कर देता है। अधिक उपेक्षा करने से इसी छिद्र के द्वारा वात, मूत्र, पुरीष तथा शुक्र निकलने लगता है । यह शतपोनक नामक भगन्दर कहलाता है । ८३ - शम्बूकावर्त - वायुः प्रकुपितः प्रकुपितौ पित्तश्लेष्माणौ परिगृह्याधोगत्वा पूर्ववदवस्थितः पादाङ्गुष्ठप्रमाणां For Private and Personal Use Only

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