Book Title: Abhinav Vikruti Vigyan
Author(s): Raghuveerprasad Trivedi
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 1160
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १०७२ www.kobatirth.org ******** विकृतिविज्ञान ६९ - रक्तपित्त अतिधर्मतया वापि तीक्ष्णोष्णकटुसेवनात् । क्षाराम्लसेवनाद्वापि मद्यपानादिसेवनात् ॥ अतिव्यवायाच्छीतेन शुष्कशाकादिसेवनात् । एतैस्तु कुपितं पित्तं रक्तेन सह मूच्छितम् ॥ • "येनैव कुप्यते पित्तं रक्तं तेनैव कुप्यते ॥ तावत्प्रकुपिते कोष्ठे वायुर्दारयते भृशम् । ऊर्ध्वं च नयते प्राणश्चापानोऽपानमीरति ॥ मध्ये समानः कुरुते रक्तपित्तस्य कोपनम् । एवं युगपत्पित्तच रक्तेन सह कुप्यति ॥ ( हारीत तृ. स्था. ) । प्रकुपित पित्त अनेक प्रकार के उपर्युक्त कारणों से पित्त का अत्यधिक कोप होता है रक्त के साथ मूर्च्छित ( मिश्रित ) हो जाता है। जिन कारणों से पित्त का कोप सम्भव है उन्हीं से रक्त भी कुपित हुआ करता है । पित्त तरलगुणभूयिष्ठ होने से रक्त को और पतला कर देता है । इस कुपित पित्त के द्वारा वायु भी बहुत अधिक कुपित कर दी जाती है । वह कोष्ठ को या उन सभी स्थानों को फाड़ देती है जहाँ पित्तमिश्रित रक्त प्रकोप किए रहते हैं । ऊर्ध्व भाग में प्राण वायु, मध्य में समान वायु तथा अधोभाग में अपान वायु रक्तपित्त का प्रकोपण करने में समर्थ होती हैं। इस प्रकार एक साथ ही स्थान-स्थान पर रक्त के साथ पित्त का प्रकोप हुआ करता है । ७० - राजयचमा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलजल गतिरोधान्मैथुनाद्रविघातादशनविरसभावाच्छ्लेष्मरोधात्सिरासु । कुपितसकलदो पैर्व्याप्त देहस्य जन्तोर्भवति विषमशोषव्याधिरेपोऽतिकष्टः ॥ ( क. का. ) मलमूत्रादिक वेग के निरोध से, अत्यधिक मैथुन करने से, साहसादिक कार्यों से विघात होने पर, सिराओं में श्लेष्मा का अवरोध होने से सम्पूर्ण दोष प्रकुपित होकर मनुष्य 'के शरीर में व्याप्त होने से यह अतोव कष्टदायक भयङ्कर राजयचमा रोग हुआ करता है | यह सान्निपातिक मानी जाती है । ७१ - वातकुण्डलिका - स्वजल वेगविघातविदूषितश्चिरविरूक्षवशादपि वस्तिज M श्चरति मूत्रयुतो मरुदुत्कटः प्रबलवेदनया सह सर्वदा । सृजति मूत्रमसौ सरुजञ्चिरान्नरवरोल्पमतोल्पमतिव्यथः पवनकुण्डलिकाख्य महामयो भवति घोरतरोऽनिलकोपतः ॥ (कल्याणकारक) मूत्रवेगनिरोध, चिरकाल तक रूक्ष वातकारक पदार्थों का प्रकोप कराता है । वह उत्कट वायु मूत्र के साथ सम्पूर्ण वस्ति में निरन्तर घूमती है । रोगी बड़े कष्ट से थोड़ा-थोड़ा मूत्र करता है । इस घोरतर वात कोप से उत्पन्न हुए महारोग को वातकुण्डलिका कहा जाता है । सेवन वायु का उत्कट प्रबल वेदना करती हुई T ७२ - वातरक्त-- हस्त्यश्वोष्ट्रप्रयातस्य च भवति विदाह्यश्नतोऽन्नं समस्तम् । रक्तं दुष्टं विदुष्टेन च युतमनिलेनेति तद्वातरक्तम् ॥ ( वैद्य चन्द्रोदय ) हाथी, घोड़ा, ऊंट आदि सवारियों पर चढ़ने से तथा विदाहकारक अन्नादिक का सेवन करने से सम्पूर्ण रक्त विदग्ध हो जाता है। यही वायु के साथ मिलकर वातरक्त को उत्पन्न करने में समर्थ होता है । ७३ - वातव्याधिरूक्षशीताल्पलध्वन्नव्यवायातिप्रजागरैः ः । लङ्घनप्लवनात्यध्वव्यायामादिविचेष्टितैः । धातूनां विषमादुपचाराच्च दोषासकस्रवणादपि 11 संक्षयाच्चिन्ताशोक रोगातिकर्षणात् ॥ मर्माबाधाद्गजोष्ट्राश्व शीघ्रयानापतंसनात् ॥ वेगसन्धारणादा मादभिघातादभोजनात् । देहे स्रोतांसि रिक्तानि पूरयित्वाऽनिलो बली । करोति विविधान् व्याधीन् सर्वाङ्गैकाङ्गसंश्रयान् ॥ ( चरक चि. स्था. ) For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 1158 1159 1160 1161 1162 1163 1164 1165 1166 1167 1168 1169 1170 1171 1172 1173 1174 1175 1176 1177 1178 1179 1180 1181 1182 1183 1184 1185 1186 1187 1188 1189 1190 1191 1192 1193 1194 1195 1196 1197 1198 1199 1200 1201 1202 1203 1204 1205 1206