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सम्प्राप्तिविमर्श
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५२-बद्धगुदोदर
यस्यान्त्रमन्नरुपलेपिभिर्वा बालाश्मभिर्वा सहितैः पृथग्वा । सञ्चीयते तत्र मलः सदोषः क्रमेण नाड्यामिव सङ्करो हि ॥ निरुध्यते चास्य गुदे पुरीषं निरेति कृच्छादपि चाल्पमल्पम् । हृन्नाभिमध्ये परिवृद्धिमेति यच्चोदरं विट्समगन्धिकञ्च ।
प्रच्छर्दनं बद्धगुढी विभाव्यः......................।। (सु. नि. स्था.) पिच्छिल अन्नादिक से, बालों से, पत्थर के टुकड़ों से या अन्य एक वा अनेक कारणों से जब अन्त्र का निरोध हो जाता जिसके कारण वहाँ नाली में कूड़े के समान दुष्ट पुरीष एकत्र होने लगता है। आन्त्र निरोध से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में गुदमार्ग पर बड़े कष्ट से मल निकलता है । हृदय और नाभि के मध्य का उदर बहुत फूल जाता है। पुरीष के समान गन्धवाली वमन भी होने लगती है। यह रोग बद्धगुदोदर जानना चाहिए।
५३-बस्तिकुण्डलद्रुताध्वलंघनायासैर भिघातात्प्रपीडनात् । स्वस्थानाद्वस्तिरुवृत्तः स्थूलस्तिष्ठति गर्भवत् । शूलस्पन्दनदाहा” बिन्दु बिन्दु स्रवत्यपि । पीडितस्तुसृजेद्धारां संस्तम्भोद्वेष्टनातिमान् ।। बस्तिकुण्डलमाहुस्तं घोरं शस्त्रविषोपमम् । पवनप्रबलं प्रायो दुर्निवारमबुद्धिभिः।
विविध कारणों से बस्ति अपने स्थान से हटकर स्थूल गर्भवत् दिखलाई पड़ती है। उसमें शूल स्पन्दनादि के साथ साथ बिन्दु-बिन्दु भूत्र हर समय गिरता है। दबाने से धारा निकलती है । उद्वेष्टन तथा स्तब्धता बराबर मिलती है । इस घोर व्याधि को बस्ति कुण्डल कहते हैं । यह साधारण चिकित्सकों से ठीक नहीं होता। यह वायु के कोप से उत्पन्न होता है।
५४-भ्रम-पित्तप्रभञ्जनभवं भ्रममेव पुंसाम् । ( हारीत ) मनुष्यों को पित्त और वात के प्रकोप से भ्रम की उत्पत्ति होती है। ५५-मदात्ययविषस्य ये गुणा दृष्टाः सन्निपातप्रकोपकाः। त एव मद्ये दृश्यन्ते विषे तु बलवत्तराः॥ हन्त्याशु हि विषं किञ्चित् किश्चिद्रोगाय कल्पते । यथाविषं तथैवान्त्यो शेयो मद्यकृतो मदः॥ तस्मात् त्रिदोषजं लिङ्गं सर्वत्रापि मदात्यये । दृश्यते रूपवैशेष्यात् पृथक्त्वञ्चापि लक्ष्यते ।।
(च चि. स्था.) जो गुण विष के बतलाये गये हैं वे ही सन्निपातकोपक गुण मद्य के होते हैं। विष मद्य से अधिक बलवान् होता है। कोई विष मार देता है, कोई कुछ रोग मात्र कर देता है। उसी प्रकार मद्य की तृतीयावस्था मारक होती है। अतः मदात्यय में सर्वत्र तीनों दोषों का प्रकोप हुआ करता है । लक्षणभेद से उसके अलग-अलग प्रकार बतलाये गये हैं।
५६-मन्थरज्वरमलमूत्रस्वेदजातदोषसंसर्गदूषितैः, भक्ष्यपेयादिभिर्द्रव्यैर्नानासंक्रमकारणैः । कीटाणवः संक्रमणं प्रकुर्वन्ति विशेषतः, कृत्वा संक्रमणं नृणामादावन्त्रं प्रयान्ति ते ॥ तत्पश्चादन्यभित्तिस्थान् ग्रन्थीन् शोथसमन्वितान् , कृत्वा सद्यो रसं रक्तं दोषान् सङ्कोपयन्त्यपि । ततः क्षुद्रान्वान्त्यभागाञ्च्छनैःकुर्वन्ति सक्षतान् , पश्चादान्त्रक्षतानां च वृद्धिः सञ्जायते क्रमात् ।। तया क्षुद्रान्त्रभागस्थं क्षतं तत्पारगं भवेत् , ततः शोथत्वमाप्नोति चोदरस्था कला ध्रुवम् । एवं रीत्या क्षते वृद्धे पुरीषोत्सर्जने क्वचित् , लक्ष्येत यदि रक्तस्य स्रावो भिन्नान्त्रता तदा।
ज्ञातव्या भिषजा चापि नूनं तस्याप्यसाध्यता ॥ रोगियों के मल-मूत्रादि के संसर्ग से दुष्ट हुए भक्ष्यपेयादि के द्वारा मन्थरज्वर के कीटाणुओं का प्रवेश मनुष्य की आँतों में हो जाता है। आन्त्र की प्राचीर में स्थित श्लेष्मल ग्रन्थियों को वे शोथयुक्त कर देते हैं जिसके कारण रस-रक्त धातुएँ तथा वातपित्तादि दोष
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