________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सम्प्राप्तिविमर्श
१०६७
होने की संज्ञा ज्वर कही जाती है । स्वस्थान से च्युत हुई अग्नि से तथा यतः स्रोतोवरोध हुआ करता है । अतः तरुण ज्वर से ग्रसित रोगी को प्रायः पसीना नहीं आता ।
।
४५ - तृष्णा
वातात्पित्तकफात्तृष्णा सन्निपाताद्ररुक्षयात् । षष्ठीस्यादुपसर्गाच्च वातपित्ते तु कारणम् ॥ सर्वासु तत्प्रकोपो हि सौम्यधातु प्रशोषणात् । सर्व देह भ्रमन्तापदाहमोहकृत् ॥ जिह्वामूलगरक्लोमा लुतोनवाः सिराः । संशोध्य तृष्णा जायन्ते "
(अष्टाङ्गहृदय )
तृष्णा वात से, पित्त से, कफ से, सन्निपात से, रस के क्षीण हो जाने से तथा छठी उपसर्ग के कारण उत्पन्न होती है । इन छहों प्रकार की तृष्णाओं की उत्पत्ति में मुख्य कारण वात और पित्त होते हैं। वायु-शोषण द्वारा और पित्त ऊष्मा द्वारा शुष्क करके सोमयुक्त धातुओं का प्रशोषण करके तृष्णा को उत्पन्न करते हैं। इसके कारण सम्पूर्ण शरीर में भ्रम, कम्प, ताप, तृषा, दाह और मोह उत्पन्न हो जाता है । जिह्वामूलगत, गलस्थ, क्लोमस्थ, तालुस्थ जलवहा सिराओं का शोषण करके तृष्णा पैदा हुआ करती है ।
४६--दाह
त्वचं प्राप्तः स पानोमा पित्तरक्ताभिमूच्छितः । दाहं प्रकुरुते घोरं पित्तवत्तत्र भेषजम् ॥ कृत्स्नं देहानुगं रक्तमुद्रिक्तं दहति ध्रुवम् । स उष्यते तृष्यते च ताम्राभस्ताम्रलोचनः ॥ लोहगन्धाङ्गवदनो वह्निनेवावकीर्यते । पित्तज्वरसमः पित्तात्स चाप्यस्य विधिः स्मृतः ॥ तृष्णा निरोधादन्यातौ क्षीणे तेजः समुद्धतम् । सवाह्याभ्यन्तरं देहं प्रदहेन्मन्दचेतसः ॥ संशुष्क गलताatur जिह्वां निष्कृष्य वेपते । असृजः पूर्णकोष्ठस्य दाहोऽन्यः स्यात्सुदुःसहः ॥ धातुक्षयोत्यो यो दाहस्तेन मूच्छातृडर्दितः । क्षामस्वरः क्रियाहीनः स सीदेद् भृशपीडितः ॥ क्षतजोऽनश्नतश्चान्नं शोचतो वाऽप्यनेकधा । तेनान्तर्दह्यतेत्यर्थं तृष्णामूर्च्छाप्रलापवान् ॥ मर्माभिघातजप्यस्ति सोऽसाध्यः सप्तमो मतः । सर्व एव च वर्ज्याः स्युः शीतगात्रस्य देहिनः ॥ आचार्यों ने दाह के ७ कारण लिखे हैं-मद्य, रक्तपित्त, तृष्णानिरोध, धातुक्षय, क्षत तथा मर्माभिघात । मद्यपान से शरीरस्थ ऊष्मा पित्त और रक्त से मिलकर घोर दात्त करती है । सम्पूर्ण शरीरचारी रक्त के प्रकुपित हो जाने से भी सारा शरीर दहक उठता है । पित्त के प्रकुपित हो जाने से पित्तज्वर के लक्षणों से युक्त पैत्तिकदाह उत्पन्न होता है | तृष्णा का निग्रह कर लेने से जलधातु के क्षीण होने से शरीर भर में
तेज दीप्त हो जाता है जिससे बाहर और भीतर सर्वत्र शरीर जल उठता है, गल तालु भोष्ठ
सूख जाते हैं। धातुक्षय से जिसमें रक्तपूर्णकोष्ठता ( रक्तस्राव सम्मिलित है, अति दुःसह दाह उत्पन्न कर देता है । क्षतज दाह में तथा रक्तस्राव दाह का प्रमुख कारण होता है । मर्माभिघात के कारण भयंकर माना जाता है ।
आभ्यन्तरिक ) भी मानसिक अवसाद उत्पन्न दाह सबसे
४७- पक्षाघात
अधोगताः सतिर्यगा धमनीरूदूर्ध्वदेहगाः । यदा प्रकुपितोऽत्यर्थं मातरिश्वा प्रपद्यते ॥ तदान्यतरपक्षस्य सन्धिबन्धान् विमोक्षयन् । हन्ति पक्षं तमाहुर्हि पक्षाघातं भिषग्वराः ॥ यस्य कृत्स्नं शरीरार्धमकर्मण्यमचेतनम् । ततः पतत्यसून् वापि जहात्यनिलपीडितः ॥ सुश्रुत अधोगामी, तिर्यग्गामी अथवा ऊर्ध्वगामी धमनियों को जब करता है तब जिस ओर यह कोप करता है उसके दूसरी ओर के को (पेशीय क्रियाओं को ) विमोचित करता हुआ उस पक्ष को नष्ट भिषग्वर पक्षाघात कहते हैं । इसके कारण उसका सम्पूर्ण शरीर, आधा शरीर या एक
कर देता है । इसी को
For Private and Personal Use Only
कुपित हुआ वायु प्राप्त एक पक्ष के सन्धिबन्धों