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सम्प्राप्ति विमर्श
१०६५ भरता हुआ शरीर तथा हनु-मन्या तथा नेत्रों को भग्न एवं आक्षेपपूर्ण करता हुआ नेत्र-पृष्ठ-उरस-पार्श्व को टेढ़ा करके स्तब्ध करता हुआ शुद्ध, सूखा या कफ से युक्त बना कास की उत्पत्ति करता है। खाँसने से उसे कास कहते हैं। उस वायु के वेगपूर्ण प्रतिघात की भिन्नता के कारण कासों में वेदना तथा शब्द की भी भिन्नता देखी जाती है। सुश्रुत ने इसी रूपक को संक्षेप में अधोलिखित शब्दों में व्यक्त कर दिया है
प्राणो ह्युदानानुगतः प्रदुष्टः सभिन्नकांस्यस्वनतुल्यघोषः ।
निरेति वक्त्रात् सहसा सदोषो मनीषिभिः कास इति प्रदिष्टः ॥ (सु. उ. त.) यहाँ प्राणवायु उदानानुगत होने से प्रदुष्ट हुई कास का कारण होती है। ३५-कुष्ठ
आचारतोऽपथ्यनिमित्ततो वा, दुष्टोऽनिलः कुपितपित्तकफौ विगृह्य ।
यत्र क्षिपत्युच्छ्रितदोपभेदात्तत्रैव कुष्ठमतिकष्टतरं करोति ॥ ( कल्याणकारक) आचार में दौष्टय आने से अथवा पथ्य में त्रुटि होने से दूषित वायु कुपित कफ और पित्त दोनों कोपकड़ कर जहाँ फेंक देता है उसी स्थान पर उद्विक्त दोषों के अनुसार अत्यन्त कष्टदायक कुष्ठ को उत्पन्न कर देता है। ३६-गण्डमाला
कर्कन्धुकोलामलकप्रमाणैः कक्षासमन्यागलवंक्षणेषु :
भेदः कफाभ्यां चिरमन्दपाकैः स्याद्गण्डमाला बहुभिश्चगण्डैः ।। कक्षा, अंस, मन्या, कण्ठ वंक्षण प्रदेश में मेद तथा कफ के द्वारा धोरे धीरे पकने वाली विविध आकार प्रकार की गाँठे गण्डमाला कहलाती हैं। ३७-गलगण्ड
वातः कफश्चैव गले प्रवृद्धौ मन्ये तु संसृत्य तथैव भेदः ।
कुर्वन्ति गण्डं क्रमशः स्वलिङ्ग समन्वितं तं गलगण्डमाहुः ।। गले में वात और कफ प्रकुपित होकर मन्या का संश्रय करके और मेद को साथ लेकर क्रमानुसार वातिक और कफज गण्ड की उत्पत्ति करते हैं यही गलगण्ड कहलाता है।
३८-गुल्म
वातप्रधानाः कुपिता दोषाः पृथक् संसृष्टाः समस्ताः सरक्ता वा महास्रोतोऽनुप्रविश्यावृत्योर्ध्वमधश्च मार्गमवश्यं शूलमुपजनयन्तो गुल्ममभिनिर्वर्तयन्ति । ( अ. सं. नि. ११)
विविध ग्रन्थोक्त कारणों से कुपित हुए वातप्रधान दोष अलग अलग, दो-दो या सब मिलकर या रक्त के साथ मिलकर महास्रोत में प्रवेश कर ऊर्ध्व और अधोमार्गों को आवृत करके शूल उत्पन्न करते हुए ग्रन्थिरूप गुल्म बनाते हैं।
३९-ग्रहणीअतीसारे निवृत्तेऽपि मन्दाग्ने रहिताशिनः । भूयः सन्दूपितो वह्निर्ग्रहणीमभिदूषयेत् ॥ एकैकशः सर्वशश्च दोषैरत्यर्थमूच्छितैः । सा दुष्टा बहुशो भुक्तमाममेव विमुञ्चति ॥ पक्कं वा सरुजं पूति मुहुर्बद्धं मुहुईवम् । ग्रहणीरोगमाहुस्तमायुर्वेदविदो जनाः ॥
(सु. उ. त. अ. ४०) अतिसार की समाप्ति पर या स्वतन्त्रतया भी अपथ्यकर भोजन करने वाले मन्दाग्नि से पीडित व्यक्तियों की ग्रहणी को वात आदि दोषों में से एक एक से या सबसे दुष्ट हुई जाठराग्नि खूब दूषित कर देती है। दुष्ट हुई वह ग्रहणी खाये हुए अन्न को पूर्णतः आम अथवा कुछ पक्क रूप में बार-बार त्यागती रहती है। जिसके कारण कभी बद्ध कभी पतला शूल के साथ पाखाना उतरता रहता है । इसी को ग्रहणी या संग्रहणी कहा जाता है।
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