Book Title: Abhinav Vikruti Vigyan
Author(s): Raghuveerprasad Trivedi
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 1138
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०५० विकृतिविज्ञान __७-वाग्भट ने भी 'यथा दुष्टेन दोषेण के द्वारा विशिष्ट व्याधि के जन्म को ही सम्प्राप्ति स्वीकार किया है। और वह व्यापारविशेष द्वारा ही सूचित होती है। जैसे ज्वर में आमा. शय दूषण, अग्निहहन आदि ज्ञान से लंघन, पाचन, स्वेदादि कार्यों की व्यवस्था की जाती है। ८-इस प्रकार दोषों के अवान्तर व्यापार से दोष ग्रहणमात्र से सम्प्राप्ति की प्राप्ति हो जाती है तथापि चिकित्सा विशेष के लिए इसका पृथक विचार भी किया जाता है। जैसे पूर्वरूप और रूप दोनों हो व्याधि का ज्ञान करानेवाले होने से समान हैं फिर भी चिकित्सा विशेष की दृष्टि से उनका अलग-अलग निर्देश किया जाता है। क्योंकि व्याधि की पूर्वरूपावस्था में जो चिकित्सा की जाती है वह रूपावस्था की चिकित्सा से अवश्य कुछ भिन्न होती है। इसलिए विजय रक्षित ने दोषेतिकर्तव्यतोपलक्षित व्याधिजन्म को ही सम्प्राप्ति माना है। अरुणदत्त-ने भी 'यथा दुष्टेन दोषेण' पर अपना मत प्रकट करते हुए लिखा है किजिस भी प्रकार से कुपित हुआ वातादि अन्यतम दोष दुष्ट होकर शरीर में विशेषतया प्रवेश करके अनुगमन करता है तो उसके द्वारा जो रोगोत्पत्ति होती है अर्थात् दोष प्रवेश से रोगोत्पत्ति पर्यन्त यावती जो भी क्रिया होती है वह सम्प्राप्ति कहलाती है। जैसे कि ज्वर में मल (दोष)आमाशय में प्रवेश करके, आन्त्र में अनुगमन करके तथा स्रोतोरोध से एवं पक्तिस्थान में स्थित अग्नि को निकालकर सम्पूर्ण शरीर में उसको प्रसर्पणकर सकल देह को तप्तकर गात्र की अत्युष्णता करते हैं यह ज्वर की सम्प्राप्ति कही जाती है। इसी प्रकार रक्तपित्तादिक की भी कही जा सकती है। हेमाद्रि-जिस प्रकार से रोग की निवृत्ति ( उत्पत्ति ) होती है उसी को सम्प्राप्ति मानता है । उस विधि से दुष्ट दोषों के संचलन से लक्षणहानि अथवा लक्षणवृद्धि अथवा रूपान्तर होता है। वेग से दुष्ट दोष का शरीर में संचलन या मार्गान्तर गति ही सम्प्राप्ति है। इन सब विद्वजनों के द्वारा किए गये सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन से शास्त्रीय सूत्र का क्या अर्थ है इसका बोध हो जाता है। मूल तत्व एक ही है कि दुष्ट हुए दोष शरीर में जिस प्रकार अनुसर्पण करते हैं और रोग की उत्पत्ति में समर्थ होते हैं दोषों के उस चलचित्र वा स्थिति को सम्प्राप्ति माना जाता है। सम्प्राप्ति के भेदों के सम्बन्ध में लिखा हैसङ्ख्याविकल्पप्राधान्यबलकालविशेषतः । सा भिद्यते, यथाऽत्रैव वक्ष्यन्तेऽष्टौ बरा इति ॥ दोषाणां समवेतानां विकल्पोंऽशांशकल्पना । स्वातन्त्र्यपारतन्त्र्याभ्यां व्याधेः प्राधान्यमादिशेत् ॥ हेत्वादिकात्यावयवैर्बलाबलविशेषणम् । नक्तंदिनर्तुभुक्तांशाधिकालो यथा मलम् ॥ -अ. हृ. नि. स्था. १ इसके सम्बन्ध में मधुकोश व्याख्या तथा उस पर जो विमर्श चौखम्बा संस्कृत पुस्तकालय द्वारा प्रकाशित श्री पण्डित सुदर्शन शास्त्री द्वारा लिखित और आचार्य पं० यदुनन्दनजी उपाध्याय द्वारा सम्पादित माधवनिदान में दिया गया है उसे भी अविकल प्रकट करना अभीष्ट है तस्या औपाधिकभेदमाह-संख्येत्यादिना सा मिद्यत इत्यन्तेन । अत्र च प्राधान्योपादानादप्राधान्यं च तत्प्रतियोगितया बोद्धव्यम् , अत एव च विवरणे स्वातन्त्र्यपारतन्त्र्याभ्यामिति वक्ष्यति । एवं बलेऽपि व्याख्येयम् संख्यादिकमेव विवृणोति-यथेत्यादि। अष्टौ ज्वरा इति संख्याविवरणम् । अष्टत्वं च वातादिकारणभेदात् ; एकजास्त्रयो, द्वन्द्वजास्त्रयः, सन्निपातज एक, आगन्तु For Private and Personal Use Only

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