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सम्प्राप्तिविमर्श
१०५३ तथा वात का प्रकोप होता है। काल विशेष में होने से काल सम्प्राप्ति कहते हैं। चरक इसके साथ बल को भी संयुक्त करके निम्न प्रकार से लक्षण करते हैं-'वलकालविशेषः पुनयाधीनामृत्वहोरात्रकालविधिनियतो भवति'। (च. नि. १।१६) अब संख्या आदि का क्रमशः पृथक् पृथक् वर्णन विस्तार से करते हैं
संख्या सम्प्राप्ति वात आदि कारण भेद से ज्वर आठ प्रकार के होते हैं यह संख्या सम्प्राप्ति का उदाहरण है। वात आदि प्रत्येक से तीन, द्वन्द्वज तोन, सन्निपातज एक तथा आगन्तुज एक इस प्रकार ज्वर के आठ भेद होते हैं । यद्यपि वृद्ध दोषों से सन्निपात के तेरह भेद हैं जैसा कि चरक ने कहा भी है-'द्वयुल्बणै' रित्यादि-अर्थात् दो उल्बण और एकोल्बण होने से छ भेद, हीन, मध्य तथा अधिक से छै भेद, समदोषों से एक भेद इस प्रकार सन्निपात के तेरह भेद होते हैं, तथापि सभी त्रिदोषज हैं अतः त्रिदोषज जाति के कारण ये तेरह प्रकार एक में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। निम्न कोष्टक के द्वारा इनका स्पष्ट ज्ञान हो सकता है
द्वयल्बणैकोल्बर्णः षट् स्युः
वृद्ध
वृद्ध
वृद्धतर
वृद्धतर
वात
कफ
पित्त
। । ।
वात
द्वयल्बण
पित्त कफ वात कफ
पित्त
कफ वात
पित्त
कफ
वात पित्त
एकोल्बण
कफ
वात हीनमध्याधिकैश्च षट
वृद्ध
वृद्धतर
वृद्धतम
वात वात पित्त पित्त
पित्त कफ कप
कफ पित्त
वात
वात
कफ
। हीन-मध्य || और अधिक
कफ
वात
पित्त
वात
समैश्चैकः
वृद्ध
वृद्ध
सम. कुल संख्या १३
वृद्ध पित्त
___वात
कफ
इसी प्रकार काम, शोक, भय आदि अनेक कारणों से उत्पन्न होने वाले सभी ज्वर आगन्तुकत्व सामान्य के कारण आगन्तुज भेद में ही अन्तर्भूत होने से एक ही कहे जाते है। इस प्रकार आठ
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