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विकृतिविज्ञान संख्यासम्प्राप्ति हुई ), रोगोत्पत्ति में कारणभूत दोषों की अंशांकल्पना (न्यूनाधिक्य आदि विवेचन)विकल्प सम्प्राप्ति, स्वतन्त्रता और परतन्त्रता द्वारा दोषों का प्राधान्य या अप्राधान्य विवेचन प्राधान्य सम्प्राप्ति, हेतु, पूर्वरूप और रूप की सम्पूर्णता या अल्पता के द्वारा बल या अबल का विवेचन बलसम्प्राप्ति और दोषानुसार रात्रि, दिन ऋतु एवं भोजन (के परिपाक) के अंश (आदि, मध्य और अन्त ) द्वारा रोगकाल का ज्ञान कालसम्प्राप्ति सम. झना चाहिए।
विमर्शः-संख्या, विकल्प प्राधान्य, बल तथा काल भेद से सम्प्राप्ति का भेद होता है। आगे क्रमशः उनके लक्षण एवं उदाहरण दिये जाते हैं
१. संख्या सम्प्राप्तिः-जिसके द्वारा रोगों के भेदों की गणना की जाती है उसको संख्या सम्प्राप्ति कहते हैं । यथा-आगे कहा जायगा कि ज्वर आठ प्रकार के होते हैं। चरक ने भी कहा है'संख्या तावद्यथा-अष्टौज्वराः, पञ्चगुल्माः सप्त कुष्ठान्येवमादिः (च० नि० १११२)
२. विकल्पसम्प्राप्तिः-व्याधि में समवेत (परस्पर सम्बद्ध) दोषों की अंशांकल्पना को विकल्प सम्प्राप्ति कहते हैं। वात आदि दोष में रहने वाले रूक्षता आदि प्रत्येक धर्म अंश है। अमुक दोष इतने अंशों से प्रकुपित हुआ है इसके निर्धारण को ही अंशांशकल्पना कहते हैं । विकल्प का विवेचन करते हुए चरक ने कहा'समवेतानां पुनर्दोषाणामंशांशबलविकल्पोऽस्मिन्नर्थे' ( च. नि. १।१५)
अर्थात् सब (एक, दो या तीनों) दोषों का उत्कर्षापकर्षरूप अंशांशबल को विकल्प कहते हैं।
३. प्राधान्य सम्प्राप्तिः-प्राधान्य के कथन से अप्राधान्य का भी बोध हो जाता है। व्याधि में सम्बद्ध दोषों की स्वतन्त्रता एवं परतन्त्रता के बल पर व्याधि की प्राधान्य या अप्राधान्य सम्प्राप्ति का निर्देश करना चाहिए।(१)अर्थात् व्याध्युत्पादक दोषों की स्वतन्त्रता का जिसके द्वारा ज्ञान हो उसे उस व्याधि की प्राधान्य सम्प्राप्ति और जिसके द्वारा दोषों की परतन्त्रता का ज्ञान हो उसे उस व्याधि की अप्राधान्यसम्प्राप्ति कहते हैं। ज्वर, अतिसार आदि द्वन्द्वज या त्रिदोषज रोगों में जिस दोष की प्रधानता होगी, प्राधान्य सम्प्राप्ति भी उसी के नाम से व्यवहृत होगी। चिकित्सा क्रम का निर्धारण भी मुख्यतः उसके अनुसार ही किया जायगा। इसके विपरीत अप्राधान्य सम्प्राप्ति होती है । चरकोक्त प्राधान्य सम्प्राप्ति का वर्णन भी वाग्भट के समान ही है । उन्होंने कहा है
'प्राधान्यं पुनर्दोषाणां तरतमाभ्यामुपलभ्यते तत्र द्वयोस्तर स्त्रिपु तम इति (च. नि. १११३ )
४. बलसम्प्राप्तिः-निदान; पूर्वरूप और रूपों की सम्पूर्णता या अल्पता के कारण व्याधि के बलाबल का ज्ञान जिससे होता है उसे बलरूप सम्प्राप्ति कहते हैं । अर्थात् हेतु, पूर्वरूप और रूप की अधिकता वाली व्याधि को सबल समझना चाहिये इसके विपरीत हेतु आदि की अंशतः उपस्थिति रहने पर व्याधि को निर्बल समझना चाहिए। चरक ने बलसम्प्राप्ति को पृथक न मानकर कालसम्प्राप्ति से ही उसका सम्बन्ध कर तथा विधि का भी पृथक उल्लेख कर पांच प्रकार की ही सम्प्राप्ति मानी है।
५. कालसम्प्राप्तिः-जिस सम्प्राप्ति के द्वारा दोषों के अनुसार रात्रि, दिन. ऋतु एवं भोजन के अंशों (आदि, मध्य एवं अन्त) से व्याधि की वृद्धि तथा हानि का निर्धारण होता है उसे काल रूप सम्प्राप्ति कहते हैं । रात्रि आदि चारों के तीनों भागों में क्रमशः कफ, पित्त
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