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सम्प्राप्तिविमर्श
१०४६ यह सम्प्राप्ति रोगाधिगम का हेतु है। इसीलिए इसे अदैवजन्य जानना चाहिए। यथा इस निदानविशेष से जो दोष कुपित हुआ है वही कारणवश इस देह में स्वतः व्यापार से इसके अन्दर पाया जाता है। इस प्रकार रोगविशेष की सम्प्राप्ति विशेष प्रदर्शित होती है । उसी से यह रोग उत्पन्न हुआ। ये पञ्चनिदान परस्पर समन्वित होकर व्याधिविशेष के ज्ञान में निराकांक्षता उत्पन्न कर देते हैं।
विजय रक्षित-मधुकोशव्याख्याकार श्री विजयरक्षित ने यथा दुष्टेन दोषेण यथा चानुविसर्पता, निवृत्तिरामयस्यासौ सम्प्राप्तिर्जातिरागतिः। की व्याख्या करते हुए निम्न तथ्यों का उद्घाटन किया है
१-विविध दोषों की प्राकृति और वैकृती यह दो प्रकार की दुष्टि हुआ करती है। वह अनुबन्ध तथा अनुबन्ध्य करके दो रूपों में दृष्टिगोचर हुआ करती है। वह एक, दो या सब दोषों से भी उत्पन्न होती है तथा रूक्षादि सम्पूर्ण भावों को व्याप्त करके या कुछ थोड़े भावों को लेकर चलती है। इस प्रकार इन आदि दुष्टियों से दूषित दोषों के द्वारा जो रोग की निवृत्ति या उत्पत्ति होती है वही सम्प्राप्ति कहलाती है।
२-दोों का विसर्पण भी कई प्रकार का होता है। यह उनकी गति है जो ऊर्ध्वअधः अथवा तिर्यक दिशा अवलम्बिनी होती है।
३-शास्त्रव्यवहार के लिए अथवा लक्षणज्ञान के लिए इस सम्प्राप्ति के अन्य पर्याय भी चलते हैं । जैसे-जाति तथा आगति। जाति और आगति अब्दों से जो प्रकार उपलक्षित होता है उसे ही सम्प्राप्ति मानना चाहिए । ___४-भट्टारहरिचन्द्र-जन्म हो चुका है जिस वस्तु का उसको भी ज्ञान में कारण मानते हैं क्योंकि जो उत्पन्न नहीं हुआ उसके विषय में अज्ञान होने से। इस दृष्टि से जिस रोग का जन्म हो चुका है। वही ज्ञान का कारण है वही सम्प्राप्ति है ऐसा उनका कथन है। इससे यह उपलक्षित होता है कि निदान से इस प्रकार जो अवबोध होता है वह ज्ञानकारणत्व नहीं है बल्कि बोध विषय की स्पष्ट उपस्थिति वा जन्म ही उसका कारण है।
५-इसे अन्य आचार्य नहीं मानते । उनका कथन है कि नेत्र और प्रकाश भी व्याधिज्ञान के कारण होने पर भी चिकित्सादृष्टि से उनकी उपादेयता शून्य है । इसी प्रकार चिकित्सा में सम्प्राप्ति केवल ज्ञान के लिए ही अपेक्षित है। चिकित्सा में उसका कोई उपयोग नहीं है। और यह भी कोई नियम नहीं है कि उत्पन्न वस्तु का ज्ञान भी हो सके। दूसरी
ओर आकाश में मेघादिक के घिर जाने से जैसे होनेवाली वर्षा का ज्ञान होता है उसी प्रकार निदान और पूर्वरूपादि से भावी व्याधि का ज्ञान हो जाता है। इसीलिए जात अर्थात् जन्मावच्छिन्न (जन्म लिया हुआ) कहा जाता है। वर्षा आदिक भविष्यजन्मावच्छिन्न होते हैं।
६-जिसका कि तीनों कालों में भी जन्म नहीं होना उसे नहीं जाना जा सकता। फिर भी व्याधिजन्म मात्र सम्प्राप्ति नहीं है । जन्म के समान प्रकाश चक्षु आदि के वाच्यत्व में आपत्ति होने के कारण। उनसे भी विना ज्ञान के अभाव के कारण अथवा जात इस विज्ञान के अभाव से।
इसलिए दोषों की कर्त्तव्यता से उपलक्षित व्याधि का जन्म ही सम्प्राप्ति माना है। भट्टारहरिचन्द्र की तरह जन्ममात्र सम्प्राप्ति की कल्पना अमान्य है।
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