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रोगापहरण सामर्थ्य
१०३७ ( infection) किसी जाति वा समूह में कभी-कभी इसलिए भी नहीं होता कि प्राकृतिक रूप में उस रोग के लिए वह प्रतीकारी है । अन्य कारणों से भी प्रतीकारिता उसमें आ सकती है। यदि किसी जनपद में कोई रोग संचारित हो जावे जिसके लिए वह जनपद अनुहृष (susceptible) है तो थोड़े ही काल में वह रोग जनपदोद्ध्वंस का रूप धारण कर लेता है । वह विश्वव्यापी भी बन सकता है। साधारणतया एक जनपद में विविध अंश में प्रतीकारिता लिए हुए व्यक्ति रहते हैं। उस जनपद में स्थानिक रूप से कोई संचारी रोग रह सकता है जो समय-समय पर व्यापक रूप धारण कर ले सकता है । इस परिवर्तन का कारण रोगकारक जीवाणु की तीव्रता या मन्दता उतनी नहीं है जितनी कि जनपदस्थ निवासियों की उस रोग के प्रति अनुहृषता ( susceptibility ) महत्वपूर्ण है। जो अनुहष व्यक्तियों का अनुपात उच्च होता है रोग महामारी का रूप धारण कर लेता है और यह उग्रता तब तक रहती है जब तक कि अनुहृष व्यक्तियों की संख्या पुनः स्वल्प होकर स्थानिक स्वरूप का रोग का व्याप नहीं हो जाता। संपरीक्षा के लिए जनपद में संचारित रोगों के कारण अनुभव यह आया है कि महामारी का जब अन्त आने को होता है तब रोगाण्विक संख्या में परिवर्तन आता है पर यह परिवर्तन रोग की संचार शक्ति (infectivity) पर अधिक प्रभाव डालता है न कि रोग की उग्रता ( virulence ) पर। जनपदोध्वंस का ज्ञान पीडित रुग्णों के देखने से तथा लक्षण विरहित रुग्णों के द्वारा होता है । यदि लक्षणविरहित रुग्णों के पहचानने में देर की तो महामारी फैलती है क्योंकि बहुत से स्वस्थ प्राणी ऐसे होते हैं जो रोग के वाहक (carriers ) का कार्य करते हैं पर स्वयं बीमार नहीं पड़ते और उनमें से अधिकांश को वह रोग नैदानिक लक्षणों से रहित और कालिक एवं गुप्त स्वरूप का होता है । स्थानिक रोग ( endemic disease ) का कारण भी ये वाहक होते हैं।
जनपदोध्वंस आचार्यों ने महामारियों को जनपदोध्वंस नाम दिया है और इनके कारण के सम्बन्ध में भगवान् आत्रेय से अग्निवेश ने प्रश्न किया है
अपि च खलु जनपदोद्ध्वंसनभेकेनैव व्याधिना युगपदसमानप्रकृत्याहारदेहबलसात्म्यसत्त्व वयसां मनुष्याणां कस्माद् भवतीति ?
अर्थात् एक ही व्याधि के द्वारा एक ही काल में भिन्न प्रकृतिवाले, भिन्न-भिन्न भोजन सेवन करने वाले, भिन्न देहबल युक्त, पृथक् सात्म्य, पृथक् मन, भिन्न आयु के होते हुए किस प्रकार मनुष्य को आक्रान्त किया जाता है। इसका बहुत सरल और आधुनिक विज्ञान से स्वीकृत निम्न उत्तर आत्रेयजी देते हैं___ तमुवाच भगवानात्रेयः। एवमसामान्यवतामप्येभिरग्निवेश ! प्रकृत्यादिभिर्भावैर्मनुष्याणां येऽन्ये भावाः सामान्यास्तद्वैगुण्यात् समानकालाः समानलिङ्गाश्च व्याधयोऽभिनिवर्तमाना जनपदं उद्ध्वंसयन्ति । ते तु खल्विमे भावाः सामान्या जनपदेषु भवन्ति, तद्यथा-वायुरुदकं देशः काल इति ।
तत्र वातमेवंविधमनारोग्यकर विद्यात् । तद्यथा-यथर्तुविषममतिस्तिमितमतिचलमतिपरुषमति
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