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रोगापहरण सामर्थ्य
१०३६
जब काल बिगड़ता है तो ऋतु विपरीत कम या अधिक लक्षणों युक्त हो जाता है।
इन चारों भावों के विपरीत होने पर वे जनपद-नाशक होते हैं । यह प्राचीन fara का मत है।
वात की विगुणता का यदि हम व्यापक अर्थलें तो आधुनिक रोगसञ्चारी जीवाणुओं से दूषित वायु भी उसमें समाविष्ट हो जावेगी । दूषित जल को भी विकारी जीवाणुओं द्वारा ही अधिक विकृत कर दिया जाता है जिसके परिणामस्वरूप विसूचिका आन्त्रज्वरादि रोग फैलते हैं। देश की विकृति के कारण मूसे बढ़ते हैं, प्लेग फैलती है, काल की विकृति के कारण जगत भर में रोग देखे जाते हैं। देश के सम्बन्ध में बताते हुए अन्य कई विशिष्ट भावों की ओर आचार्य ने इङ्गित किया है जो कौन कह सकता है कि निकट भविष्य में ही वैज्ञानिकों द्वारा नहीं स्वीकार कर लिए जावेंगे ।
कौन विकृत भाव से कौन विकृत भाव महत्त्वपूर्ण है इसके लिए विचार अधोलिखित सूत्रों में किया गया है
वैगुण्यमुपपन्नान
देशकाला निलाम्भसाम् । गरीयस्त्वं विशेषेण हेतुमत्सम्प्रचक्षते ॥ वाताज्जलं जलाद् देशं देशात्कालं स्वभावतः । विद्यादपरिहार्यत्वाद्गरीयः परमार्थवित् ॥
देश, काल, वात और जल इनके विगुण हो जाने पर किसकी गुरुता विशेष है इसका विचार करने पर वात से जल, जल से देश तथा देश से काल स्वभावतः अपरिहार्य जानना चाहिए। इस क्रमानुसार वायु से जल गरीब है । जल से देश गरीय है तथा सबसे अधिक गरीय काल है क्योंकि प्रथम तीन से बचने का उपाय भी हो सकता है पर काल तो सर्वथा अपरिहार्य है ।
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