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सम्प्राप्तिविमर्श
१०४१
मानता है उसी प्रकार आयुर्वेद के सम्प्राप्तिशास्त्र की सम्यक् ज्ञानोपलब्धि के लिए दोषों की साम्यावस्था, दोषों के प्राकृतिक स्थान, दोषों के प्राकृतिक कार्य, धातुओं की समावस्था, अनि के भेद, सिरा, स्नायु, कण्डरा स्रोतसादि आयुर्वेदीय शारीर तथा दोष धातुमलादि विज्ञान से परिचित होना भी नितान्त आवश्यक होता है । अस्तु, सम्प्राप्ति समझने के लिए शारीररहस्य जानना भी अपेक्षित है । हृदयस्थ स्रोतसों के ज्ञान के बिना अपस्मार, प्राणवाही स्रोतसों के जाने विना श्वास का तथा रसवाही स्रोतस एवं कोष्टानि की कल्पना के साकार चित्र को विना हृदयङ्गम किए ज्वर का बोध नहीं हो सकता । आयुर्वेदीय पूर्णता का स्पष्ट चित्र हमें उसके स्वतन्त्र शारीर और स्वतन्त्र सम्प्राप्ति विज्ञान से मिलता है एक-एक रोग को लेकर फिर आचार्यों ने उसके सम्बन्ध में जो सम्प्राप्ति सम्बन्धी विमर्श दिया है उसको समझ कर यदि आधुनिक विज्ञान में निष्णात भारतीय विद्वान् बैंठें तो बहुत कुछ मौलिक प्राप्त कर ले सकते हैं । हमने ग्रन्थ के अन्त में इस प्रकरण को इसलिए दिया है कि आधुनिक पैथालोजी के तत्वों से परिचित होने पर सम्प्राप्ति के सम्बन्ध में उपस्थित वर्णन को सुरुचिपूर्वक पढ़ा जा सकेगा और आचार्यों का उससे क्या अभिप्राय है उस पर सरलतया पहुँचा जा सकेगा ।
सम्प्राप्ति-पर्याय
सम्प्राप्ति, आगति और जाति ये तीन शब्द पर्याय रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं । इसी को निवृत्ति और निष्पत्ति भी कहते हैं ।
गङ्गाधर कविराज ने अपनी जल्पकल्पतरु टीका में, चक्रपाणिदत्त ने आयुर्वेददीपिकाख्य व्याख्या में तथा इन्दु ने अष्टाङ्गसंग्रह की शशिलेखा नामक टिप्पणी में सम्प्राप्ति का यथोचित बोध कराने की भरसक चेष्टा की है । मधुकोशव्याख्याकार विजयरक्षित तथा अरुणदत्त ने सर्वाङ्गसुन्दरी एवं हेमाद्रि ने आयुर्वेदरसायन में इस विषय का अच्छा ज्ञान प्रदर्शित किया है। हम नीचे यह सब अविकल उद्धृत करते हैं ताकि इस सम्बन्ध में जो आगे हमें निष्कर्ष निकालने हैं उनमें सहायता मिल सके
गङ्गाधर कविराज - एष उपशयः पूर्वरूपे प्रयुक्तो भविष्यद् व्याधिं बोधयति । उत्पन्ने व्याधौ प्रयुक्तो वर्त्तमानं व्याधिं बोधयति । जायमानन्तु व्याधिं किं बोधयति न वाऽथ चेद्बोधयति कदा-कदा प्रयुक्तो बोधयतीत्यतः सम्प्राप्तिमाह- सम्प्राप्तिरित्यादि । सम्प्राप्तिरागतिर्जातिरित्यनर्थान्तरं व्याधेः इति । सम्प्राप्तिरिति क्तिच् । जातिरित्यपि जनेर्भावे क्तिच् । आगतिरित्यपि आगमे भावे क्तिच् । य एवार्थो जनेः स एवार्थः सम्प्राभ्यामापेः स एव आङ्पूर्वं भेरित्यनर्थान्तरमित्युक्तम् । जनी प्रादुर्भावे इति सत्तानुकूलव्यापारो जनिधात्वर्थः । जन्यर्थस्वरूपो बाह्यभावः । क्तिच् प्रत्ययार्थः । स च सन्तानुकूलव्यापारस्वरूपः । सदिति । यतः स सत्ता सद्भावः प्रकृतिभूतकारणानां कल्पान्तरेण अभिनिष्पन्नानामनुवृत्तिहेतुः । उत्पन्नो येनोत्तरकालं वर्त्तते स स्वकारणसमवाय पत्र सत्ता । सा सामान्यं विशेषश्च । आरम्भकः द्रव्याणां स्वस्वक्रियाजन्य पुनः पुनः संयोगविभागाभ्यां विक्रियमाणानां रूपान्तरेण समानप्रसवात्मिका सत्ता सामान्यं जातिरुच्यते । यथा ब्राह्मणानां निखिलानां समान एव प्रसवः । असमानप्रसवात्मिका सत्ता प्रत्येकशो जातिः सामान्यजन्मनोरिति सामान्यजातिलक्षणम् विशेषजातिस्तु प्रतिरोगं वक्ष्यते । उत्पन्नानां भावानां समवायिकारण समवायो यावन्तं कालं वर्त्तन्ते तावन्तं कालं तेषामुत्पत्तेरनु पश्चाद्वत्तिरित्यनुवृत्तेर्हेतुः समवायः सत्तोच्यते । तस्याश्च सत्ताया अनुकूलव्यापारः प्रकृतिभूतद्रव्याणां स्वस्वक्रियाभिः परस्परं पुनः पुनः संयोगविभागौ जनयित्वा निष्पाद्यते तत्तत् कार्याणां स्वरूपनिष्पत्तौ सर्वावयवसमवाय इति । शारीरव्याध्युत्पत्तौ तु स्वकारणैः दुष्टानां दोषाणां दुष्टिहुधा, संग्रहेण द्विधा प्राकृती वैकृती च । प्राकृती यथा स्वलक्षणर्त्तुकसंवत्सराद्दोरात्र भुक्तांशकालकृतचयप्रकोपौ । वैकृती
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