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पञ्चदश अध्याय सम्प्राप्तिविमर्श
इस ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय में आचार्यों के द्वारा विकृति के सम्बन्ध में जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया गया है जिसके यथावत् ज्ञानमात्र से विकार का याथातथ्य बोध हो जाता है, जिसका यथावत् जान लेना ही मानो आयुर्वेदीय निदानशास्त्र के गूढ़ तत्व का विवेचन है तथा जिसके विधिवत् परिज्ञान के बिना कोई न तो आयुर्वेद का पण्डित ही कहा जा सकता है और न सफलचिकित्सक ही हो सकता है एवं जिसके विषय में अतिशय अन्धकार के प्रसार के कारण ही वैद्यवर्ग में आवश्यक चेतना का अभाव हग्गोचर हो रहा है तथा जिसके लिए अनुसन्धान महारथियों को तत्पर होकर कार्य करना परम आवश्यक है । उस 'सम्प्राप्ति' के सम्बन्ध में आवश्यक साहित्य का नातिविस्तृत विमर्श यहाँ उपस्थित किया जा रहा है ।
किसी भी व्यक्ति को अपस्मार हो गया, ज्वर आ गया, श्वास का दौरा पड़ गया यह कहने से जहाँ साधारण व्यक्ति को क्रमशः एक मूर्च्छाग्रस्त रोगी का, जलते हुए शरीर वाले का अथवा हाँफते हुए प्राणी का चित्र स्वयं उपस्थित हो जाता है वहाँ एक चिकित्सक के मस्तिष्क में इन तीनों प्रकार के रोगियों के विषय में तीन निम्नलिखित कल्पनाएँ आती हैं
१ - विविध कारणों के कुपित हुए वातादि दोष हृदय के स्रोतसों में स्थित होकर स्मृति का अपध्वंस करके अपस्मार नामक रोग को उत्पन्न करने में समर्थ हुए हैं ।
२ - मिथ्या आहार विहारादि के कारण दूषित हुए वातादिक दोषों ने आमाशय में पहुँचकर रसवहस्रोतसों का मार्ग ग्रहण किया है तथा कोष्ठामि को बाहर निकाल कर ज्वर उत्पन्न कर दिया है । तथा
३ - कुपित वायु ने कफ के साथ प्राणचाही स्रोतसों का अवरोध कर दिया है और फिर वह फुफ्फुसों में सर्वत्र विचरण करता हुआ श्वास रोग को उत्पन्न कर रहा है ।
यही नहीं, फिर इन तीनों व्याधियों में प्रकार ज्ञान करना, दोषों के कोप की ठीक-ठीक स्थिति का पता लगाना, कौन दोष स्वतन्त्ररूप से और कौन परतन्त्र होकर रोगोत्पत्ति में भाग ले रहा है इसे समझना, रोग कितनी शक्ति के साथ शरीर में स्थित है इसे खोजना तथा तद्रोगों के कारक दोषों का प्रकोप किस काल में अधिक वा कम होता है तथा दोष की जीर्णता वा नूतनता का परिचय पाना आदि कुछ और महत्व के तत्र हैं जिनको भी साथ ही जानना आवश्यक होता है ।
उपर्युक्त सम्पूर्ण ज्ञान व्यक्तिविशेष के शरीर में होने वाली व्याधि का पूरा-पूरा चित्र चिकित्सक के समक्ष उपस्थित कर देता है जिसे जानकर वह रोगी की चिकित्सा का, साध्यासाध्यता का तथा पथ्य का विचार सरलतया कर लेता है
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दोषों की प्रकुपित अवस्था का ठीक-ठीक परिचय, शरीर के अङ्गों, प्रत्यङ्गों और अवयवों की यथेच्छ जानकारी ये सभी इसके लिए परमावश्यक होती हैं । जिस प्रकार माडर्न चिकित्साशास्त्र का विद्यार्थी पैथालोजी का परिज्ञान करने के लिए क्रियाशारीर (फिजियालोजी) एवं रचनाशारीर ( एनाटोमी ) का ज्ञान अनिवार्यतया आवश्यक
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