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रोगापहरण सामर्थ्य
१०३३ मात्रा का प्रवेश किया जावे तो कोशा के सब आदाता उससे आक्रान्त न होकर कुछ ही हो पाते हैं, शेष आदाता कोशा का जीवन कायम रखते हैं। विषाक्रान्त कोशाओं की पूर्ति करने के लिए कोशा अन्य कई आदाताओं को प्रकट कर देता है। ये अतिरिक्त आदाता स्वाभाविकतया कोशा से पृथक होकर शारीरिक तरलों में प्रतिविष के रूप में प्रकट हो जाते हैं।
प्रतिजन-प्रतिविष प्रतिक्रिया का पूर्ण दिग्दर्शन कराने के लिए अहर्लिक ने भादा. ताओं के ३ गण ( orders ) मान लिए हैं-प्रथम गण, द्वितीय गण तथा तृतीय गण । प्रत्येक आदाता के पास एक संयोजन समूह (combining group) का होना भी इसने मान लिया है। इस संयोजन समूह को उसने लांगलधर या हैप्टोफोर (hapto. phore ) नाम दिया है। यदि मिलते हो केवल क्लीबन हो गया तो आदाता प्रथम गण का मान लिया जावेगा । ऐसा विष और प्रतिविष दोनों के संयोग के कारण ही हो सकता है। पर विषाभ निर्मिति को स्पष्ट करने के लिए विष व्यूहाणु के साथ विषधर या टोक्जोफोर ( toxophore ) समूह की उपस्थिति भी मान लेनी पड़ी जिसका दायित्व विषैली क्रिया करना है। यही टोक्नोफोर समूह परिवर्तित होकर विषाभ ( toxoid ) बन जाता है तथा हैप्टोफोर समूह अपरिवर्तित रह कर कोशीय आदाता से मिलने के लिए स्वतन्त्र रहता है या प्रतिविष व्यूहाणु रूप में ( मुक्त आदाता) रक्त में संवहित होता रहता है।
अहर्लिक के द्वितीय गण के आदाता प्रसमूहन तथा निस्सादन इन दोनों क्रियाओं को किस प्रकार करते हैं इसे स्पष्ट किया गया है। द्वितीय गण के आदाताओं में एक ऐसा परिवर्तन माना गया है और उसमें एक अन्य समूह का भाव समझा गया है जिसके कारण प्रतिजन में एक भौतिक परिवर्तन आ जाता है ज्यों ही उसके हैप्टोफोर समूह के साथ प्रतिद्रव्य बन जाता है। इसी अन्यक्रियाकर समूह को अर्गोफोर ( ergophor ) समूह नाम दिया गया है।
तृतीय गण द्वारा पूरक प्रतिबन्धन ( complement-fixation ) की घटना स्पष्ट होती है। इसके लिए यह मान लिया गया है कि एक और आदाता होता है जो स्वयं तो निष्क्रिय रहता है पर जो प्रतिजन को अन्य क्रियावान् पदार्थ पूरक (complement) के साथ संयुक्त कर देता है । तृतीय गण के आदाताओं के पास दो हैप्टोफोर समूह होते हुए मान लिए गये हैं जिनमें एक प्रतिजन के साथ मिल जाता है जिसे कोशाप्रिय ( cytophilic ) आदाता कहते हैं और दूसरा पूरक के साथ मिल जाता है जो पूरक प्रिय (complementophilic) आदाता कहलाता है। तृतीय गण के इस आदाता को ही एम्बोसैप्टर (amboceptor) या द्विग्राही कहते हैं क्योंकि इसमें दोनों समूह हैप्टोफोर प्रकार के होते हैं। संक्षेप में तीनों गणों के सम्बन्ध में निम्न सूत्र उपयोगी होंगे
८७, ८८ वि०
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