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रोगापहरणसामर्थ्य
१०३१ प्रतिजन में स्थित पूरक के स्थिरीकरण की क्रिया करने वाले व्यंशियों के ही समान पूरकबन्धक ( complement fixers) भी होते हैं। प्रतिजन, व्यंशि और पूरक इन तीनों को स्थिरीकृत करके स्वतन्त्रतया पूरक की उपस्थिति को अप्रकट करने वाले ये हुआ करते हैं।
प्रतिजन के शरीर में प्रविष्ट होते ही भक्षिकायाणु उनका भक्ष करने लगते हैं। यदि इन भक्षिकायाणुओं को धो दिया जावे तो वे फिर भक्षण करने में असमर्थ हो जाते हैं । यदि इस समय प्राकृतिक रक्तलसी उसमें गिरा दी जावे तो फिर वे बड़े चाव से भक्षण कार्य कर उठते हैं। इस प्रक्रिया से यह ज्ञात होता है कि प्रतिजन को सुस्वादु बनाने वाली कोई वस्तु अवश्य है जिसके घुल जाने से प्रतिजन अरुचिकर हो जाती है। इस वस्तु को हम सुस्वादि ( opsonin ) नाम देते हैं। सुस्वादियाँ भी २ प्रकार की होती हैं-एक ऊष्महत् ( thermolabile ) और दूसरी ऊप्मस्थायी ( thermostable ) ऊष्महत् ५६ श० पर नष्ट हो जाती है । इसे पूरक से पृथक् पहचानना कठिन है और यह अविशिष्ट होती है। दूसरी उष्मस्थायी सुस्वादि को रोगाण्वावर्ति ( bacteriotropin ) कहते हैं । यह पूरक की उपस्थिति में अच्छा कार्य करती है।
प्रतिविषाण्वीय प्रतिद्रव्य प्रतिरोगाण्वीय प्रतिद्रव्यों के समान ही होते हैं।
अभी तक बैक्टीरिया के लिए हमने रोगाणु का प्रयोग किया है पर वे शाकवर्ग के वानस्पतिक तत्व हैं अतः उनके लिए योग्य शब्द शाकाणु है। इसी प्रकार रोगाण्वीय के स्थान पर शाकाण्वीय आदि आवेगा। जहाँ रोगजनक सर्वसामान्य अणुओं का विचार होगा वहाँ रोगाणु तथा जहाँ विशेष वर्ग का वर्णन होगा वहाँ शाकाणु चलेगा।
__ स्थानिक प्रतीकारिता कुछ शरीर धातुएँ किसी विशेष जीवाणुओं के द्वारा रोगाक्रान्त होने की प्रवृत्ति रखती हैं। यदि उन्हें हम समर्थ ( immune ) कर दें तो सम्पूर्ण शरीर उस रोग से प्रतीकारी बनाया जा सकता है। ऐसा बैटेडका नामक विद्वान् का मत है। उदाहरण के लिए कालस्फोट ( एन्थ्राक्स ) का जीवाणु त्वचा पर तथा आन्त्रज्वर का जीवाणु आन्त्र पर अपना प्रभाव करता है। यदि हम वण्टमूष की त्वचा छीलकर उस पर मृदु बनाए कालस्फोट दण्डाणु का घर्षण करें तो स्वचा में स्थानिक प्रतीकारिता उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण यदि बाद में अति तीक्ष्ण मात्रा को सूचीवेध द्वारा उसकी त्वचा में प्रविष्ट करें तो भी वण्टमूष मरता नहीं। यदि किसी प्राणी की खचा के नीचे कालस्फोट दण्डाणु प्रविष्ट करें तो कुछ नहीं होता पर यदि त्वचा में प्रवेश कर दें तो तुरत मृत्यु हो जाती है। ये सब बैरोड्का के विचार को व्यक्त करते हैं। कालस्फोट के लिए प्रतीकारिता यह स्थानीय धातु-त्वचा का कार्य है। इसी प्रकार यदि मृत आन्त्रज्वर दण्डाणु मुख द्वारा खिलाए जावें ता आन्त्र में प्रतीकारिता उत्पन्न हो जावेगी जिसके कारण आगे चलकर आन्त्रज्वर का प्रभाव न हो सकेगा। परन्तु यहाँ
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