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विकृतिविज्ञान किसी उपसृष्ट प्राणी के धातुरस को किसी ऐसे प्राणी में अन्तर्वेध द्वारा प्रविष्ट कराया जावे जिसे किसी रोगाणु द्वारा उपसृष्ट करा दिया गया हो तो इस धातुरसके अन्दर व्याप्त अग्रापकारि के कारण उस रोगाणु की विकारशक्ति बहुत तीव्र हो जाती है।
शविकक्षाराभ-ये रोगाणुओं द्वारा उदासृष्ट पदार्थ नहीं हैं । ये तो वे विषाक्त पदार्थ हैं जिन्हें रोगाणुओं द्वारा प्रोभूजिनों के विघटन से प्राप्त किया जाता है। ये वानस्पतिक क्षाराभों के सदृश लगते हैं । शविकक्षाराभों में २ मुख्य हैं-शवी ( cadaverin) तथा पूतिगन्धि (putrescin)। इन्हें ताप के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता। शविकक्षाराभों के द्वारा विषता बहुत कम देखी जाती है । शवी
और पूतिगन्धि द्वारा विषता न होकर इन शविकक्षाराभों के निर्माणकर्ता रोगाणुओं के द्वारा वह होती है।
रोगाणविक आक्रमण एवं शारीरिक प्रतिरक्षा जब कभी कोई रोगाणु अपने शरीर पर आक्रमण करता है तो उससे प्रतिरक्षण के लिए शरीर कुछ सामान्य (general ) अथवा अविशिष्ट ( non-specific ) तथा कुछ असामान्य या विशिष्ट ( specific ) उपायों का अवलम्बन करता है । हम नीचे इन सब उपार्यों का संक्षिप्त वर्णन देते हैं ।
शरीर प्रतिरक्षा के सामान्य उपाय-(१) इन उपायों में सर्वप्रथम अविदीर्ण स्वस्थ त्वचा है जो किसी भी जीवाणु के शरीर-प्रवेश को रोकती है। श्लेष्मलकला स्वस्थ होते हुए भी प्रतिरक्षा की दृष्टि से बहुत अधिक विश्वास की वस्तु नहीं। प्रमेहाणु के द्वारा उसका सरलता से भेदा जाना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। (२) शरीरधातुओं और तरलों की अम्लता भी प्रतिरक्षा में महत्त्व का कार्य करती है। योनि की श्लेष्मल कला से अग्लस्राव का होना, आमाशयिक स्राव में अम्लत्व की उपस्थिति तथा मूत्र की स्वाभाविक अम्लता के कारण इनमें वैकारिक जीवाणुओं की वृद्धि प्रायशः रुक जाती है । (३) शारीरिक तरल जैसे आँसू इनके द्वारा एक विशिष्ट स्थान पर उपस्थित रोगाणुओं को शरीर स्वयं धो देता है। (४) पक्ष्म और उनकी गतियों द्वारा श्वास नलिका में स्थित अनावश्यकतत्व बाहर फेंक दिये जाते हैं। (५) मस्तिष्क का ताप-नियन्ता-केन्द्र रोगकारक जीवाणुओं की उपस्थिति की प्रतिक्रिया सन्ताप बढ़ाकर करता है। सन्ताप का बढ़ना जहाँ रोगाणुओं के लिए हानिकर सिद्ध होता है वहाँ वह नाड़ी की गति को तीन करके रुधिर-संवहन क्रिया को उत्तेजित करके सब धातुओं का शोधन कर देता है ताकि स्वेद आकर विष बाहर हो जाता है। इससे समझा जा सकता है कि रोगाणविक उपसर्ग काल में ज्वर एक प्रतिरक्षात्मक लाभप्रद विधान है हानिकर नहीं। (६) श्वेतकण अपनी रोगाणुभक्षि-क्रिया द्वारा प्रतिरक्षात्मक कार्य करते हैं। उपसर्ग होते ही अस्थिमज्जा में श्वेतकणोत्पत्ति प्रचुरता के साथ होने लगती है और श्वेतकण उपसर्ग के स्थल पर पहुँचकर वहीं उसे रोकते या नष्ट करते हैं। (७) पूरक ( complement ) नामक पदार्थ
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