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विकृतिविज्ञान of mucous membrane ) की दिशा में उन्नत व्रण लम्बे लम्बे बने होते हैं । इन विक्षतों के बीच की श्लेष्मलकला पूर्णतः स्वस्थ होती है। इस प्रकार इन विक्षतों को देख कर हम कह सकते हैं कि वे अन्त्र की स्वस्थ प्राचीर पर एक बटन के समान बने होते हैं जब कि दण्डाणुजन्य ग्रहणी ( bacillary dysentery ) में ठीक इसके विपरीत स्थिति होती है। वहाँ अबनतगर्त जैसे व्रण बनते हैं जिनके चारों ओर की श्लेष्मलकला प्रायः मोटी और सूजी हुई होती है। अपनी प्रारम्भिक अवस्था में अमीबिक डिसेंटरी के विक्षत स्थूलान्त्र के निचल भाग की अपेक्षा ऊपर के भाग में वे अधिक संख्या और अधिक प्रौढ होते हैं इनकी अपेक्षा निचले भाग में वे थोड़े और नये होते हैं। यदि विक्षत की थोड़ी खुर्चन ( scraping ) का परीक्षण किया जावे तो पता लगेगा कि कितने ही आमकारी कामरूपी सक्रिय रूप से वहाँ कार्य कर रहे हैं।
ऊपर अमोबिक डिसेंट्री के जिन विक्षतों का वर्णन किया गया है उनके साथ यदि आन्त्रस्थ पदार्थों के जीवाणुओं का द्वितीयक उपसर्ग और लग जावे तो उनमें और अधिक खराबी आकर जो अवस्था बना करती है वह तीव्र निर्मोचनी आमग्रहणी (Acute sloughing amoebic Dysentery ) की स्थिति कहलाती है । इस अवस्था में अमीबाओं द्वारा निकलने वाला स्राव बढ़ जाता है। तथा साधारणतया जो उपश्लेष्मल आन्त्रावरण स्राव पतला रहा करता था वह स्थूलरूप धारण करने लगता है यहाँ तक कि उसकी मोटाई आन्त्र प्राचीर की साधारण मोटाई से भी कई गुना बढ़ जा सकती है जिसके कारण बाहर से टटोलने से आँत ऐसी लगती है मानो आन्त्रान्त्र प्रवेश ( intussusception ) जैसा पुञ्ज बन गया हो । ऐसी अवस्था आने पर स्राव अपना मार्ग आन्त्र के पेश्यावरण को चीर कर उपउदरच्छदस्तर ( subperitoneal layer ) तक चला जाता है। इसके कारण आन्त्र ऊपर से पिच्छिल लस से सन जाती है जिसमें सक्रिय अमीबा देखे जा सकते हैं। यह स्थिति विना आन्त्र को विदीर्ण किए ही बना करती है । इस काल में आन्त्र के भीतर जो व्रण बने होते हैं वे कई वर्ग इञ्चों में फैल जाते हैं और उनके किनारों से कुथित श्लेष्मलकला के निर्मोकित टुकड़े लटके हुए देखे जा सकते हैं। आन्त्रप्राचीर स्थान-स्थान पर इतनी मृदु हो जाती है कि वह रोजर्स और मैगो के शब्दों में एक गीले सोख्ते (शोषक पत्र ) के समान मालूम पड़ती है और मृत्यूत्तर परीक्षण काल में उसे विना पूर्णतः विदीर्ण किए निकाला नहीं जा सकता। पर सन्तोष की बात यह है कि ऊपर जिस भयङ्कर व्याधि का स्वरूप प्रगट किया गया है वह बहुत ही कम देखी जाया करती है सो भी वर्षों में एकाध बार । अतिदुर्बल उपेक्षित रोगी ही इसके शिकार बना करते हैं। इस समय यदि यकृत् को देखा जावे तो ज्ञात होगा कि उसमें असंख्य छोटी-छोटी विद्रधियाँ बनी हुई हैं। इस बीच सम्पूर्ण स्थूलान्त्र अमीबिक व्रणों में भर जाती है। इलियोसीकलवाल्व के ऊपर तुदान्त्र में इस रोग का एक भी व्रण नहीं देखा जाता जो बहुत आश्चर्यजनक घटना है। साथ ही यह भी आश्चर्यकारक है कि आँत में असंख्य बड़े-बड़े व्रण होने पर भी दो व्रणों के मध्य की भूमि पूर्णतः स्वस्थ पाई जाती है।
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