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विकृतिविज्ञान रोगाणुरक्तता (septicaemia) नहीं होती। न इसमें यकृद्विद्रधि ही बनती है । पर जब कभी यकृद् में विद्रधि देखी जाती है तो वह एक न हो कर कई होती हैं और उनमें पूय भरा होता है।
यद्यपि आन्त्रछिद्रण और लस्यावरण का सम्बन्ध इस रोग में नहीं आता पर जब आ जाता है तो एक अभिघट्य उदरच्छदपाक :( plastic peritonitis) भी मिल सकता है जिसमें अन्त्र अपने आस पास की रचनाओं वा अंगों से चिपक जाती है। इस कारण छिद्रण ( perforation ) कभी नहीं होता।
जीर्ण दण्डाण्विक ग्रहणी में स्थूलान्त्र के निचले आधे भाग में रोग पाया जाता है । बड़े बड़े विषमाकृतिक निम्नित ( depressed ) व्रण जो एक से दूसरे जाकर मिल जाते हैं, पाये जाते हैं जिन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो कीटदष्ट आँत हो ।
आन्त्र श्लेष्मलकला के विस्तीर्ण भाग पूर्णतया नष्ट हुए मिलते हैं उनकी मध्यवर्ती श्लेष्मलकला परमपुष्ट हो जाती है और उसमें श्लेष्मीय पूर्वगक ( mucous polyps) बन जाते हैं। व्रणों के तलों में एकन्यष्टियों की भरमार हो जाती है और जीर्ण व्रणशोथ की अवस्था प्रकट होती है। आन्त्रप्राचीर में तन्तूकर्प खूब हो जाता है जिससे आन्त्र-स्थैर्य अथवा आन्त्रावरोध (intestinal obstruction ) भी हो जा सकता है।
इस रोग में मृत्यु सबसे पहले तीव्र विषरक्तता के कारण हो सकती है। रोगी बहुत जल्द कुछ ही दिनों में मर जाता है। मृत्यूत्तर परीक्षण करने पर ऐसे शवों की आन्त्रप्राचीर में अधिक व्रण नहीं मिल पाते। पर कभी-कभी एक ही सप्ताह में रोग की सम्पूर्ण अवस्थाएँ समाप्त होकर रोगी भला चंगा भी हो जा सकता है । व्रण भरने गते हैं और कुछ भी पीछे को नहीं बचता। फ्लेक्शनर रूप में ऐसा ही होता है। शीगा रूप में रोग जीर्णस्वरूप भी धारण कर ले सकता है। रोगी को वर्षों अतीसार चलता है वह दुर्बल होता जाता है और दुष्पोषण के परिणामस्वरूप इस लोक को छोड़ परलोक सिधार जाता है। इस रूप में थोड़े से ही अपथ्य से रोग का तीनाक्रमण बीच-बीच में कई बार भी देखा जा सकता है।
रोग से पूर्ण मुक्ति मिलने पर भी रोगी के मल में ग्रहणी दण्डाणु की एक फौज छूट सकती है । वह इस प्रकार एक वाहक का रूप लेकर समाज के लिए अभिशाप बन जा सकता है। कीटाणु ग्रहणी या बैलेंटीडियल डिसेंट्री ( Balantidial Dysentery )
इसका कर्ता एक कीटाणु (protozoon ) होता है जिसे बैलेंटीडियम कोलाय ( ballantidium coli ) कहा करते हैं। यह आम ग्रहणी से बहुत मिलता जुलता रोग है। इसका कीटाणु उपश्लेष्मल आवरण में पाया जाता है। पेशीय आवरण, रक्त वाहिनियों, लसीका वाहिनियों तथा आन्त्र निबन्धिनी की ग्रन्थियों में भी वह मिल सकता है। मल परीक्षण करने पर कीटाणु बहुत कम पाया जाता है पर झुण्ड के रूप में मिला करता है।
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