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अग्नि वैकारिकी
१०१३ साध्यासाध्यता की दृष्टि से सुश्रुत ने बहुत स्पष्ट घोषणा की है
द्वन्द्वजानि द्वितीयायां वलौ यान्याश्रितानि च।
कृच्छ्रसाध्यानि तान्याहुः परिसंवत्सराणि च ॥ कि द्वितीयवलि में आश्रित एक वर्ष पुराने द्वन्द्वज अर्श कृच्छ्रसाध्य होते हैं।
त्रिदोषजार्श ( सन्निपातजार्श)
सन्निपातजानि सर्वदोषलक्षणयुक्तानि-सुश्रुत सब दोषों के लक्षणों से युक्त अर्श सन्निपातज अर्श होते हैं । चरक ने
___ सर्वो हेतुस्त्रिदोषाणां सहजैर्लक्षणं समम् । कह कर सर्व दोषों से उत्पन्न त्रिदोषज अर्श को माना है तथा उसके लक्षण सहजाों के समान जानने के लिए स्पष्ट निर्देश किया है। __मधुकोशव्याख्याकार ने
त्रयो दोषा जनकत्वेनैषां सन्तीति त्रिदोषजानि । आदि लिख कर फिर एक विवाद का समाधान किया है।
द्वव्यमेकरसं नास्ति न रोगोप्येकदोषजः । योऽधिकस्तेन निदेशः क्रियते रसदोषयोः । के द्वारा रस वा दोष किसके नाम से किस पदार्थ के रस वा किसी रोग के दोष का नामसंस्कार करें इसकी ओर लक्ष्य किया गया है। चरक ने वातपित्तश्लेष्मा इन तीनों से ही निर्मित सब शरीरधारियों को बतलाया है। इस वचन से यद्यपि धास्वादि एक दोष से दूषित होने पर भी उस दोष के अन्दर व्याप्त अन्य दोनों दोष भी कुछ न कुछ दुष्टि करते होंगे। और भी अपने कारण से वर्द्धित वात शैत्य के द्वारा श्लेष्मा को तथा लाघव के द्वारा तेजोरूप पित्त को उत्तेजित करने की शक्ति रखती है। पित्त कटु होने से वात, द्रवस्वगुण के कारण श्लेष्मा को प्रकुपित कर सकता है। कफ इसी प्रकार निजशीतलता से वायु और द्रवत्व के कारण पित्त का वर्द्धन कर सकता है। ____ अतः न रोगोऽप्येकदोषजः का सिद्धान्त प्रायः प्रमाणित किया जा सकता है। इसी से एकः प्रकुपितो दोषः सर्वानेव प्रकोपयेत् का दूसरा सिद्धान्त भी पुष्ट होता है। पर जब अपने-अपने स्पष्ट कारणों से तीनों ही दोष प्रकुपित हो गये हों तो वहाँ त्रिदोषजन्य व्याधि विशेषतया अभिलक्षित होती है।
चरक ने उपरोक्त सिद्धान्तों की पुष्टि करते हुए निम्नलिखित श्लोक लिखा है :अर्शासि खलु जायन्ते नासन्निपतितैस्त्रिभिः। दोषैर्दोषविशेषस्तु विशेषः कल्प्यतेऽर्शसाम् ।।
जिसका आशय यह है कि कोई भी अर्श वात, पित्त और कफ इन तीनों के असन्निपात से उत्पन्न नहीं होता। परन्तु जिस विशेष दोष की विशेषता या उल्बणता होती है उसी के नाम से उसका नामकरण किया जाता है। चक्रपाणि ने इसी को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है__ यद्यपि सन्निपतितैरित्युक्ते त्रयाणां मेलको लभ्यते, तथापि त्रिभिरिति पदं त्रयाणामप्यत्र अनुबन्ध्त्वस्य तथा च हीनपादस्योपदर्शनार्थकः। दोषविशेषादिति उल्बणरूपादिविशेषात् । विशेष इति वातजोऽयं इत्यादिको विशेषः।
१. सर्वदेहचरास्तु वातपित्तश्लेष्माणः ।
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