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अनि वैकारिकी
अर्श सम्प्राप्ति
पञ्चात्मा मारुतः पित्तं कफो गुदवलित्रयम् । सर्व एव प्रकुप्यन्ति गुदजानां समुद्भवे ॥
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( च. चि. स्था अ. १४-५५ )
अर्शोत्पत्तिकाल में प्राणोदानसमानव्यानादानपञ्चात्मक वातदोष, पाचकर अकसाधकालो चकभ्राजक पञ्चात्मक पित्तदोष, क्लेदकावलम्बक बोध कतर्पकश्लेषक पञ्चात्मक कफदोष और गुद की संवरणी, विसर्जनी और प्रवाहणी तीनों वलियाँ ये सभी प्रकुपित होते हैं । इसी के कारण अर्श अत्यन्त कष्टदायक, अनेक व्याधियों के करने वाले सम्पूर्ण शरीर को उपतप्त करने वाले और कष्टसाध्यों में सर्वाधिक कष्टकारक माने जाते हैं ।
गुरुशीताभिष्यन्दिविदाहिविरुद्धाजीर्णप्रमितासात्म्य भोजन करने से, अतिस्नेह पान वा असंशोधन से, वस्तिकर्मविभ्रम से, अव्यायाम, अतिव्यवाय दिवास्वम, सुखासनादि से, वेगों के धारण से, मल या गर्भ का दबाव पड़ने से बहु विषम प्रसूतियों से, गुद में क्षत होने से तथा अन्य शास्त्रविहित कारणों से जब अपानवायु अधोगत सञ्चित मल को गुद वलित्रय में धारण करता है तब अर्श उत्पन्न होता है
प्रकुपितो वायुरपानस्थमलमुपचितमधोगमासाद्य गुदवलिष्वाधत्ते, ततस्तु तास्वर्शांसि प्रादुर्भवन्ति । इसी को वाग्भट ने अपनी ललित वाणी में निम्न शब्दों में व्यक्त किया है:दोषप्रकोप हेतुस्तु प्रागुक्तस्तेन सादिते । अग्नौ, मलेऽतिनिचिते, पुनश्चातिव्यवायतः ॥ यानसंक्षोभविषमकठिनोत्कटकासनात् । वस्तिनेत्राश्मलोष्ठोवतलचैलादिघट्टनात् ॥ भृशं शीताम्बुसंस्पर्शात्प्रततातिप्रवाहणात् । वातमूत्रशकृद्वेगधारणान्तदुदीरणात् ॥ ज्वरगुल्मातिसारामग्रहणीशोफपाण्डुभिः । कर्शनाद्विषमाभ्यश्च चेष्टाभ्यो योषितां पुनः ॥ आमगर्भप्रपतनाद्गर्भंवृद्धिप्रपीडनात् । ईदृशैश्चापरे वयुरपानः कुपितो मलम् ॥ पायोर्वीषु तं धत्ते तास्वभिषण्णमर्तिषु । जायन्तेऽर्शासि
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अर्शों का वर्गीकरण
अर्शों के सम्बन्ध में यद्यपि पीछे पर्याप्त लिखा जा चुका है पर इसके वर्गीकरण के कई रूप पाठकों के समक्ष नहीं आ सके ।
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वातले मोल्वणान्याहुः शुष्काण्यर्शासि तद्विदः । प्रस्रावीणि तथाऽऽर्द्राणि रक्तपित्तोल्वणानि च ॥
वातिक और श्लैष्मिक अर्श शुष्कार्श कहलाते हैं क्यों कि उनसे किसी भी प्रकार का स्त्राव नहीं होता तथा रक्तज अथवा पित्तज अर्श आर्द्रार्श कहलाते हैं क्योंकि एक से रक्त का और दूसरे से तनुपीतरक्तस्राव होता रहता है I
अर्श का एक वर्गीकरण सहज और जन्मोत्तर दो अन्य रूपों से भी किया जाता है । सहज अर्श की उत्पत्ति में भी २ कारण हैं- -एक माता पिता का अपचार और दूसरा पूर्वकृत कर्म । जन्मोत्तरकालीन अर्श के दोषानुसार वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, द्वन्द्वज, सन्निपात रक्तज आदि रूप होते हैं । सहज अर्श में भी ये भेद मिल सकते हैं पर वह