________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
१०२०
विकृतिविज्ञान
सन्निपातज, जन्मोत्तर अर्श से अधिक सादृश्य रखता है । रक्तज अर्श में भी वातिक, पैत्तिक आदि दोषज रूप मिल सकते हैं। उसके ६ प्रकार हम पीछे दे चुके हैं।
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अर्शादि में अग्निबल का महत्त्व त्रयोविकाराः प्रायेण ये परस्परहेतवः । अर्शासि चातिसारश्च ग्रहणीदोष एव च ॥ एषामग्निबले हीने वृद्धिवृद्धे परिक्षयः । तस्मादग्निबलं रक्ष्यमेषु त्रिषु विशेषतः ||
चरक के उपर्युक्त दोनों सूत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं जब आधुरिक रिसर्चर अधिक गवेषणा करेगा तो उसे कालान्तर में अर्श, अतिसार और ग्रहणी इन तीनों रोगों के एक दूसरे को उत्पन्न करने की सामर्थ्य का ज्ञान होगा। तीनों ही शरीरस्थ पाचकाग्नि के हीन होने से बढ़ते और वृद्धिंगत होने से नष्ट हो जाते हैं अतः इन तीनों रोगों में अग्नि बल की रक्षा करने की विशेष आवश्यकता है । यही कारण है कि आयुर्वेदज्ञों ने अर्श, अतीसार वा ग्रहणी रोग नाशक जो भी चिकित्सा लिखी है उसमें अग्निसन्दीपक पदार्थों के उपयोग की ओर सतर्क होकर इङ्गित किया है । पथ्य का सूत्र अर्श रोगी को बतलाते समय ही चरक इस महत्त्वपूर्ण भाव को व्यक्त करने से चूके नहीं हैंयद्वायोरानुलोम्याय यदग्निबलवृद्धये । अन्नपानौषधं द्रव्यं तत्सेव्यं नित्यमर्शसैः ॥
Musex
For Private and Personal Use Only