________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१०१८
विकृतिविज्ञान अर्थोत्पत्ति ( हमारे शब्दों में कर्कटोत्पत्ति) को अविकल रूप में उत्कृत किए देते हैं :
प्रकुपितास्तु दोषा मेढ़मभिप्रपन्ना मांसशोणिते प्रदूष्य कण्डूजनयन्ति, ततः कण्डूयनात् क्षत समुपजायते, तस्मिंश्च क्षते दुष्टमांसजाः प्ररोहाः पिच्छिलरुचिरस्राविणो जायन्ते कूर्चकिनोऽभ्यन्तरमुपरिष्टाद्वा, ते तु शेफो विनाशयन्त्युपध्नन्ति च पुंस्त्वं, योनिमभिप्रपन्नाः सुकुमारान् दुर्गन्धान् पिच्छिलरुधिरस्राविणश्छत्राकारान् करीराजनयन्ति ते तु योनिमुपनन्त्यावश्च ।
नाभिमभिप्रपन्ना सुकुमारान् दुर्गन्धान् पिच्छिलान् गण्डपदमुखसदृशान् करीरान् जनयन्ति त एवोर्ध्वमागताः श्रोत्राक्षिघ्राणवदनेष्वर्शास्युपनिवर्तयन्ति; तत्र कर्णजेषु बाधिय शूलं पूतिकर्णता च, नेत्रजेषु वविरोधो वेदनास्रावो दर्शननाशश्च, घ्राणजेपु प्रतिश्यायोऽतिमात्रं क्षवथुः कृच्योच्छवा सता पूतिनस्यं सानुनासिकवाक्यत्वं शिरोदुःखं च, वक्त्रजेषु कण्ठोष्ठतालूनामन्यतमस्मिस्तैर्गद्गद वाक्यता रसाशानं मुखरोगाश्च भवन्ति । ___ व्यानस्तु प्रकुपितः इलेष्माणं परिगृह्य बहिः स्थिराणि कीलवदर्शासि निवर्तयति तानि चर्मकीलान्यासीत्याचक्षते ।
संक्षेप में प्रकुपित दोष शिश्न के मांस और रक्त में खुजली करते हैं खुजलाने से तत बनता है क्षत से प्ररोह बनते हैं जिनसे चिपचिपा रक्त निकलता है। प्ररोह कूर्चकवत् बन जाते हैं जो शिश्न को नष्ट कर व्यक्ति को नपुंसक बना देते हैं। योनि में छत्रक के समान (कर्कटार्बुद का स्वरूप भी छत्रक जैसा होता है) रुधिर स्रावी करीर वा अङ्कर बनते हैं वे योनि का विनाश कर देते हैं। नाभि के करीर गण्डूपद मुख सदृश होते हैं। कान, नेत्र, नासा और मुख में उत्पन्न हुए करीर तत्तत् स्थान से सम्बद्ध वाधिर्य, कर्णशूल, पूतिकर्ण, वर्मावरोध, नेत्रशूल, स्राव, दृष्टिनाश, प्रतिश्याय, क्षवथु आधिक्य कृच्छ्रोच्ासता, पूतिनस्य, गद्गदवाक्यता, रसाज्ञानादि विकारों का उत्पादन करते हैं। व्यानवायु सर्व शरीर में विचरण करने वाला होने से कफदोष के साथ मिलकर त्वचा पर चर्मकील तैयार करता है।
कहने का तात्पर्य यह कि अर्श के स्थान गुद और गुद वलित्रय तो मुख्यतया है ही सुश्रुत विद्यालय के मानने वाले गुदेतर कर्णनासाशिश्नयोन्यादि अंगों में भी अर्थोत्पत्ति स्वीकार करते हैं।
साध्यासाध्यता की दृष्टि से विचार करने पर जो अर्श निचली या बाह्य दो वलियों में होते हैं वे साध्य माने जाते हैं । भीतरी वलि (प्रवाहणी वलि ) में होने वाला अर्श असाध्य बतलाया गया है अतःबाह्यमध्यवलिस्थानां प्रतिकुर्याद्भिषग्वरः । अन्तर्वलिसमुत्थानां प्रत्याख्यायाचरेत् क्रियाम् ॥ ( सुश्रुत)
और भी। बाह्यायां तु वलौ जातान्येकदोषोल्बणानि च । असि सुखसाध्यानि न चिरोत्पतितानि च ।। द्वन्द्वजानि द्वितीयायां वलौ यान्याश्रितानि च । कृच्छ्रसाध्यानि तान्याहुः परिसंवत्सराणि च ॥ सहजानि त्रिदोषाणि यानि चाभ्यन्तरां वलिम्। जायन्तेऽर्शासि संश्रित्य तान्यसाध्यानि निर्दिशेत् ।।
(चरक)
For Private and Personal Use Only