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विकृतिविज्ञान dal veins) त्वचा से ढंके और गुद के निचले भाग में बनते हैं। आधुनिक दृष्टि से इनके कारण केन्द्रिय तथा स्थानिक दो प्रकार के कहे गये हैं। केन्द्रिय कारणों में यकृहाल्युत्कर्ष और हृदौर्बल्य मुख्य हैं । स्थानिक हेतुओं में गुदकर्कट ( carcinoma of the rectum) गर्भाशय का भार, अष्ठीला ग्रन्थि की वृद्धि तथा मल का विष्टम्भ मुख्य हैं। ___ अर्श में अत्यधिक विस्फारित सिराओं के समूह होते हैं और उन्हें देखकर एक बड़े वाहिन्यर्बुद का भास हो सकता है। यह श्लेष्मलकला अथवा त्वचा से ढंका होता है । सिरापाक अथवा धनात्रोत्कर्ष के साथ इसको बहुधा कोई उपसर्ग ला सकता है जिससे अर्श का सहसा दौरा होता हुआ देखा जाता है। घनास्त्र तन्त्वित् (fibrosed ) हो जा सकता है। जिसके कारण तुरत लाभ हो जा सकता है। कभी कभी उपसर्ग ग्रसित घनास्त्र टूट टूट कर अन्तःशल्यों का निर्माण करता है जो यकृत् में जाकर विद्रधि निर्माण कर सकते हैं। अर्श के मस्से के चारों ओर की त्वचा के कोशा जीर्ण व्रणशोथ से पीडित रह सकते हैं घनास्त्र सिरापाकावस्था के अतिरिक्त रक्तस्त्राव अर्श का एक प्रमुख लक्षण है जिसके कारण द्वितीयक अरक्तता हो सकती है।
जहाँ आधुनिकों ने आन्तरिक और बाह्य इन-दो विभेदों को करके अर्श का वर्णन किया है वहाँ आयुर्वेद के विद्वानों ने इसे ६ प्रकार का माना है :
पृथग्दोषैः समस्तैश्च शोणितात्सहजानि च । अर्शासि पट प्रकाराणि विद्याद्गुदवलित्रये ।। अर्थात् वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, सान्निपातिक, रक्तजन्य और सहज इस प्रकार गुद की वलित्रयी में ६ प्रकार के अर्श होते हैं। पृथक पृथक दोषों के जैसे अर्श होते हैं वैसे ही द्वन्द्वज अर्श भी सम्हाले जावे तो अर्शों की संख्या और भी बढ़ सकती है। सहज अर्श और त्रिदोषज अर्श के लक्षण एक से होते हैं।
दोषजन्य अर्शी के निदान ( aetiology ) के सम्बन्ध में चरक के निम्न सूत्र बहुत महत्त्व के कहे गये हैं : वातार्श-कषायकटुतिक्तानि रूक्षशीतलवूनि च । प्रमिताल्पाशनं तीक्ष्णं मद्यं मैथुनसेवनम् ।
लंघनं देशकालौ च शीतौ व्यायामकर्म च । शोको वातातपस्पर्शी हेतुर्वातार्शसां मतः ।। पित्तार्श-कटवम्ललवणोष्णानि व्यायामाग्न्यातपप्रभाः । देशकालावशिशिरौ क्रोधो मधमसूयनम् ।।
विदाहि तीक्ष्णमुष्णं च सर्व पानान्नभेषजम् । पित्तोल्वणानां विज्ञेयः प्रकोपे हेतुर शंसाम् ।। कफार्श-मधुरस्निग्धशीतानि लवणाम्लगुरूणि च । अव्यायामो दिवास्वप्नःशय्याऽऽसनसुखे रतिः ।। प्राग्वातसेवा शीतौ च देशकालावचिन्तनम् । श्लैष्मिकाणां समुद्दिष्टमेतत्कारणमर्शसाम् ।।
(चरक चिकित्साध्याय १४ ) भेल ने अर्श के सर्व सामान्य निमित्त बतलाते हुए निम्न सूत्र प्रकट किये हैं:विदाहि गुरुरूक्षाणां आनूपोदकसेविनाम् । दधिदुग्धगुडादीनां पिशितानां च भोजिनाम् ।। यानानामुदकानां च दुष्टानामुपचारणात् । नित्याजीर्णभुजां चापि वेगानां च विधारणात् ।। प्रवाहणाच्चातिमात्रं मैथुनस्यातिसेवनात् । दुष्टपानप्रसङ्गान कठिनात्पृष्ठपीडनात् ॥ निरूहस्यातियोगाच्च वस्तिनां विभ्रमादपि । स्नेहपाके च विभ्रान्तात् मधदोषाश्रयात्क्षयात् ॥
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