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अवैकारिकी
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एभिः प्रकुपिता कोषा वातपित्तकफास्त्रयः । एकशस्सर्वशो वातः द्वन्द्वशः शोणितेन वा गुदाभिष्यन्दमेवाशु कुर्वन्ति गुदमाश्रिताः ।
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उपर्युक्त इन सम्पूर्ण कारणों के देखने से यह स्पष्ट है कि अर्शोत्पत्ति में आहार विहार और पान का विपर्यय महत्त्वपूर्ण भाग लेता है । स्वाद्वम्ललवणतिक्तोषण कषायरससम्पन्न विविध पदार्थों में से कोई भी अतिमात्र सेवन करने से अर्शकारक स्थिति उत्पन्न कर दे सकता है । रूक्ष, शीतल, लघु द्रव्य हों या विदाही, तीक्ष्ण, उष्ण पदार्थ हों अथवा स्निग्ध, उष्ण गुरु वस्तुएँ हों अर्शोत्पत्तिकारक अवस्था उत्पन्न करने में वे सभी समर्थ हो सकते हैं। शोक, क्रोध, चिन्ता से तीनों मानसिक अवस्थाएँ अर्श की उत्पत्ति में अथवा उसके वेगों को बुलाने में सदैव महत्त्वपूर्ण अभिनय करते हैं । व्यायाम का करना या न करना दोनों ही अर्शोत्पादक बन सकते हैं । मद्य सेवन अर्शकारक कहा गया है । दधि, दुग्ध, गुड, मांसादिक का प्रयोग, दुष्ट जल का उपयोग, प्रवाहण, मैथुनाधिक्य, वेगविधारण, अजीर्ण भोजन, अधिक सवारियों में बैठना, कठिन पीठ वाले पशुओं की पीठ पर चढ़ते रहना, वस्ति में व्यतिक्रम, स्नेहपान विभ्रान्ति आदि अनेक ऐसे कारण हैं जो दोषों का प्रकोप गुदस्थान में करके व्यक्ति को अर्श से पीडित कर देते हैं । वेगों का विधारण करना घण्टों टट्टी की हाजत को मारना या मूत्रत्याग में अत्यधिक विलम्ब करना अथवा अपान वायु के निस्सरण को रोकने का यत्न छोंक को रोकना आदि सभी गुदस्थान पर अत्यधिक दबाव महत्त्वपूर्ण योग देते हैं ।
डालकर अर्श को उत्पन्न करने में
अर्श के पूर्व रूपों का निम्न वर्णन चरक ने किया है—
विष्टम्भोऽन्नस्य दौर्बल्यं कुक्षेराटोप एव च । कार्यमुद्गार बाहुल्यं सक्थिसादोऽल्पविकता ॥ ग्रहणदोषपाण्ड्वर्ते राशङ्का चोदरस्य च । पूर्वरूपाणि निर्दिष्टधन्यर्शसामभिवृद्धये ॥ अन्न का विष्टम्भ अर्थात् अन्न के पाचन की गति में रुकावट, दुर्बलता, कुक्षि में वायु के कारण आटोप, कृशता, अधिक डकारों का आना, टाँगों में शैथिल्य, मल की कमी, ग्रहणी का दूषित होना, पाण्डु रोग या उदर रोग की शङ्का होना ये सभी अर्श के पहले देखे जाते हैं ।
अर्श की उत्पत्ति के समय पृथक्-पृथक् एक-एक दोष यद्यपि हमने प्रकुपित हुआ बतलाया है परन्तु
पञ्चात्मा मारुतः पित्तं कफो गुदवलित्रयम् । सर्व एव प्रकुप्यन्ति गुदजानां समुद्भवे ॥ कि पाँचों वायु, पाँचों पित्त और पाँचों कफ ये सभी गुद की वलित्रयी में अर्श होने से प्रकुपित हो जाते हैं । इसी कारण -
तस्मादर्शासि दुःखानि बहुव्याधिकराणि च । सर्वदेहोपतापीनि प्रायः कृच्छ्रतमानि च ॥ कहे जाते रहे हैं ।
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की निरुक्ति आदि
अरिवत्प्राणिनो मांसकीलका विशसन्ति यत् । अर्शासि तस्मादुच्यन्ते गुदमार्गनिरोधतः ॥ दोषास्त्वङ्मांसमेदांसि सन्दृष्य विविधाकृतीन् । मांसाङ्कुरानपानादौ कुर्वन्त्यशसि तान् जगुः ॥