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विकृतिविज्ञान
पित्तरक्तिरक्तता ( hyperbilirubinaemia ) पाई जाती है पर वह इतनी उग्रता लिए हुए नहीं होती जितनी पेलाग्रा में पाई जाती है। रक्त में कैल्शियम की भी कमी पाई जाती है । ( ११ के स्थान पर ८ या ९ प्रतिशत ही होती है ) । उपपैत्तिक रक्तता ( hypocholesterolaemia ) भी मिलती है ।
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वैकारिकी दृष्टि से देखने से निम्न लक्षण मिलते हैं:
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१. स्वचा रूक्ष, खुरदरी, निम्बूक वर्णीय होती है ।
२. दुर्बलता बहुत होती है तथा आलस्य और अंगावसाद बहुत मिलता है । ३. रोगी की चर्बी घटती चली जाती है । पेट की तोंद पचक जाती है और टापा घट जाता है ।
४. यकृत् में अपुष्टि और कभी कभी स्नैहिक विहास भी पाया जाता है । ५. हृदय बभ्रुवर्णीय अपुष्टि ( brown atrophy ) मिल सकती है । ६. क्षुद्रान्त्र में वायु भरने से वह फूल जाती है । अन्त्र के अंकुर ( villi ) सिकुड़ जाते हैं, अपुष्ट हो जाते हैं उनमें अनुतीव्र व्रणशोथ के लक्षण देखे जा सकते हैं। और कभी कभी उनमें व्रणन भी होता है । आन्त्रनिबन्धिनी की ग्रन्थियों की कभी कभी आकार वृद्धि हो जाती है । और वे तन्त्विक ( fibrotic ) हो जाती हैं ।
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७. अस्थिमज्जा परमचयित हो जाती है ।
मृत्यु का कारण आन्त्रिक अपुष्टि, अरक्तता अथवा शेषान्त्र का छिद्रण हो सकता है।
प्रू का एक रोगी दूसरे से मुखपाक, आध्मान और अतीसार इन तीन लक्षणों के अतिरिक्त अन्य प्रकार से मिले ही यह आवश्यक नहीं है । वर्णविहीन मल, स्नेहशोषण का अभाव और फटी फटी व्रणित जिह्वा के साथ परमवर्णिक अरक्तता, इस रोग के साथ प्रायः पायी जाती है। रोगी का मल धीरे धीरे अपना रंग खोने लगता है वह मात्रा में बहुत अधिक हगता है, मल में झाग और गैस बहुत मिलती है, मल मृदु और पेस्ट (लेई ) जैसा होता है । मल में स्नेहांश और अपचित अन्न के कण खूब मिलते हैं । इस प्रकार शरीर के पोषकतत्त्वों का निरन्तर मल द्वार से बाहर जाने के परिणामस्वरूप शरीर दुर्बल और क्षीण ( emaciated ) होता चला जाता है । जब रोगी की परावटुका ग्रन्थियाँ थक कर खाली हो जाती हैं और रक्त में कैल्शियम की पर्याप्त कमी होने लगती है तो अपतानिका ( टिटैनी - totany ) नामक रोग भी हो जा सकता है ।
किरण दर्शन से जो बेरियम आहार के बाद अन्त्र कर लिया जाता है ग्रहणी और लध्वन्त्र में जो स्वभावतः पक्षाकार ( feathery ) स्वरूप होता है वह समाप्त हो जाता है जो आन्त्र झल्लरों ( valvulae conniventes ) की अपुष्टि से या उनके सपाट हो जाने से होता है। इसके कारण आन्त्रिक श्लेष्मलकला की प्रचूषिका भूमि कम हो जाती है । आँतों के अन्दर स्नैहिक अम्लों (fatty acids ) तथा क्लीब स्नेहों (neutral fats ) का जो अनुपात स्वस्थावस्था में रहता है वह
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