________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अग्नि वैकारिकी
६६७ यह तो रही रोग की तीव्रावस्था की चरम सीमा जिधर पाठक ने दृष्टिपात अभी अभी किया था अब हम क्रानिक ( कालिक) अमीबिक डिसेंट्री (आमग्रहणी) की ओर उसका ध्यान आकृष्ट करते हैं।
जीर्ण आमग्रहणी में उपश्लेष्मलावरणीय स्त्राव के बाहर निकल जामे अथवा परिशुष्क हो जाने से अन्त्र में छोटे अवनत व्रण रह जाते हैं जिनके किनारे उठे हुए रहते हैं जिनमें तान्तव ऊति की सघनता पाई जातो है। इनमें बहुत थोड़े अमीबा पाये जाते हैं । इन व्रणों की दीवाले घने तान्तव भाग से ही बनती हैं। इनके सिरे एक दूसरे से चिपके हुए होते हैं। इन व्रणों की वास्तविक प्रकृति उन्हें देख कर नहीं ऑकी जा सकती पर आन्त्र की श्लेष्मलकला में अमीबिक डिसेंट्री के रूपदर्शक स्पष्ट व्रण भी देखे जा सकते हैं। एक ही अन्त्र में इस रोग की प्रत्येक अवस्था आराम से देखी जा सकती है प्रारम्भिक क्षुद्र व्रण की अवस्था, निर्मोचनी अवस्था, तथा जीर्णावस्था इन तीनों के स्वरूप वहाँ सरलतया देखे जा सकते हैं। उचित उपचार के अभाव में यह रोग वर्षों तक मिल सकता है। गहरे व्रणों के कारण अन्त्र का छिद्रण भी अधिक जीर्ण रुग्णों में मिल सकता है।
जीवाणुजन्य और अमीबाजन्य ग्रहणियों में अन्तर ग्रहणी के मुख्य लक्षण अतीसार तथा मल के साथ रक्त, आम तथा पूय का जाना यह तो दोनों प्रकार की ग्रहणियों में एक सा मिलता है। इन दोनों का अन्तर जानने का एक उपाय मल परीक्षा करना है जिसमें विक्षतों में जो फर्क पाया जाता है उसे स्पष्टतया जाना जा सकता है। ऊतिनाश ३ प्रकार का प्रायशः हुआ करता है जिनमें एक अंशन ( lysis ) कहलाता है, दूसरा सान्द्रतोत्कर्ष ( pyknosis) कहा जाता है
और तीसरा सूत्रण ( karyorrhexis) कहलाता है। जीवाणुजन्य उपसर्गों में कोशीय अंशन बहुत देखा जाता है जिनके कारण महाभक्षियों से राक्षस कोशा (ghost cells ) और वहुन्यष्टियों से बलयन्यष्टियाँ ( ring nuclei ) तैयार होते हैं । ९० प्रतिशत कोशा बहुन्यष्टि होते हैं। पर यह परीक्षण अपना सारा महत्त्व इस लिए खो बैठता है कि द्वितीयक उपसर्ग से अभिभूत अमीबिक डिसेंट्री से पीड़ित रोगी का मल भी सपूय हो सकता है । अत्यन्त महत्वपूर्ण यदि कोई है तो वह है महाभति कोशा ( macrophages ) और उसके राक्षस कोशा । पर दुर्भाग्यवश इनकी प्रकृति अमीबा से मिलती जुलती होने के कारण भ्रम हो सकता है। और दोनों में पृथक्करण विना अत्यन्त दक्ष विकृति विशारद के करना असम्भव हो जाता है। शुद्ध अमीबिक डिसेंट्री से बने मल में कोशाओं की संख्या बहुत कम होती है और एककोशीय कोशाओं की बहुलता देखी जाती है। कोशाप्ररस पर विकरों का परिणाम होने से उनकी आकृति आखुदष्ट ( mouse-eaten ) जैसी हो जाती है या उनकी न्यष्टियों से सान्द्रकाय ( pyknuotic bodies ) बन जाती हैं। अमीबा के अतिरिक्त रक्त के लाल कण बहुत बड़ी संख्या में मल में देखे जाते हैं। चार्कट लेडिन क्रिस्टल ( char
For Private and Personal Use Only