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अग्नि वैकारिकी स्थान या रोगी से दूसरे स्थान या रोगी तक पहुँचता है। यद्यपि ग्रहणी किसी भी काल में मिल सकती है पर इसकी बहुलता उष्णार्द्रता युक्त ऋतु जैसे वर्षा में अधिक पाई जाती है। भारतवर्ष में ३ प्रकार की डिसेंट्री बहुधा मिलती हैं। इनमें एक अमीबाजन्य अमीबिक डिसेंद्री, दूसरी बैक्टीरियाजन्य बैसीलरी डिसेंटी तथा तीसरी प्रोटोजुआजन्य बैलेंटीडियल डिसेंट्री। तीनों में प्रथम दो बहुतायत से देखी जाती हैं । हम अब इन तीनों का वर्णन संक्षेप में करेंगे
आम ग्रहणी या अमीबिक डिसेंट्री ( Amoebic Dysentery) यह व्याधि एण्टामीबा हिस्टोलिटीका (आमकारी अन्तःकामरूपी) नामक जीवाणु के द्वारा उत्पन्न होती है। यह जीवाणु स्थूलान्त्र के उपश्लेष्मल आवरण पर क्रिया करता है जिससे वहाँ व्रण उत्पन्न हो जाते हैं ये व्रण इस रोग को तीव्र या चिरकालानुबन्धि किसी भी रूप में रख सकते हैं। इस रोग के द्वारा अमीबिक यकृत्पाक या यकृद्विदधि होने की पूर्ण सम्भावना रहा करती है। ____ अब हम थोड़ा इस आमकारी जीवाणु के सम्बन्ध में विचार करेंगे। यह जीवाणु आँतों में ३ प्रमुख रूपों में मिलता है:
१. वानस्पतिकरूप या तीव्ररूप ( vegetative or acute form), २. ग्रन्थिपूर्वीरूप ( precystic form ), तथा ३. ग्रन्थीयरूप ( cystic form )
तीव्र रूप का एण्टामीबा हिस्टोलीटिका साम और सरक्त शकृत् के अन्दर देखने में आता है । इसका रूप उतियों में प्रवेश पाने और उन पर आक्रमण करने में समर्थ होता है । इसके कारण बृहदन्त्र में वणन होता है। यह स्वच्छ, ईषत् हरित, पारदर्शी तथा व्यास में २० से ३० म्यू तक होता है। जब यह अपनी विकारकारिणी स्थिति में होता है तब इसमें से काचरीय कूटपाद (hyaline pseudopodia) निकल निकल कर बड़ी तेजी से गति करते हैं, बाह्य भाग स्वच्छ और अन्तर्भाग कणदार होता है । यह अपने कूटपादों के द्वारा रक्त के श्वेत लालकों तथा ऊति के अंशों को हजम करता रहता है। तरल भाग का शोषण यह आसृति ( osmosis) द्वारा करता है । इसका प्रगुणन द्विखण्डन ( binary fission) द्वारा होता है। शकृत् में यह पुंज या झुण्डों के रूप में मिलता है। शरीर के बाहर इसका जीवन कुछ घण्टों का ही होता है। उष्णावस्था इसकी उत्पत्ति के लिए तथा इसकी गतियों के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई है।
ऊतियों पर आक्रमण करनेवाले आमकारी कामरूपी पूर्वग्रन्थीयरूप का निर्माण करते हैं। सक्रिय अमीबा विभक्त होकर छोटे छोटे अमीबाओं की उत्पत्ति के कारण बनते हैं। ये आंतों के अन्दर से आहार को सम्पूर्णतया निकाल देते हैं। ये गोल, ५ से २० म्यू तक आकार वाले मन्दगतिमय और रसधानीविहीन कोशाप्ररसयुक्त होते हैं। पूर्वग्रन्थीय रूप अमीबा के द्वारा एक पतली कला या ग्रन्थि की प्राचीर का निर्माण होता है।
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