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विकृतिविज्ञान श्लैष्मिक या कफज अतीसार की उत्पत्ति का कारण व्यक्ति का गुरु, मधुर, शीत, स्निग्ध पदार्थों का उपसेवन, पर्याप्त भोजन करना, चिन्तारहित जीवन व्यतीत करना, दिन में सोना तथा आलस्य में पड़े रहना इन सब कारणों से कफ प्रकुपित हो जाता है। यह कुपित कफ अपने स्वभाव के कारण (गुरु, मधुर, शीत, स्निग्ध, शिथिल होने से)
१. पाचकाग्नि को नष्ट करता है।
२. सौम्यस्वभावात् पुरीशायमुपहत्योपक्लेद्यसोम यानी जलगुणभूयिष्ठ होने से मलाशय में पहुँच कर मल को पतला बनाता है तथा
३. कफज अतीसार को उत्पन्न कर देता है। सर्वलिङ्गज सानिपातिक अतीसार में भी इसी प्रकार अनेक कारण( अतिशीतस्निग्धरूक्षोष्णगुरुखरकठिनविषमविरुद्धासात्म्यभोजनादभोजनात् , कालातीतभो. जनाद् यत्किचिदभ्यवहरणात् प्रदुष्टमद्यपानीयपानादतिमद्यपानीयपानाद् असंशोधनात् प्रतिकर्मणां विषमगमनात् , अनुपचारात् , ज्वलनात् उपवनसलिलातिसेवनाद् , अस्वप्नाद् , अतिस्वप्नात् वेगविधारणात् , ऋतुविपर्ययात् , अयथाबलमारम्भात् , भयशोकचिन्तोद्वेगातियोगात् , कृमिशोषज्वरार्शविकारोपकर्षणात् )। होने से तीनों दोष प्रकुपित हो जाते हैं जो
१. पाचकाग्नि को नष्ट करते हैं। २. मलाशय में प्रवेश करके मल को पतला करते हैं। ३. और सान्निपातिक अतीसार को उत्पन्न कर देते हैं। रक्तादि धातु को अधिक दूषित करने से रक्तातीसारादि बनते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि भतीसार में प्रकुपित दोष पहले पाचकाग्नि की क्रिया में विघ्न डालते हैं फिर मल को पतला करते हैं। इस प्रकार आमाशय से लेकर मलाशय तक सम्पूर्ण महास्रोत में एक प्रकार का तीव्र क्षोभ व्याप्त रहता है जो विविध प्रकार के अतीसारों को जन्म देता है।
प्रवाहिका अतीसार का ही एक प्रकार प्रवाहिका कहलाता है। यह मलत्याग के विकृत रूप की ओर अङ्गुलिनिर्देश करता है। सुश्रुत उत्तरतन्त्र में इसका वर्णन निम्न प्रकार दिया गया है
वायुः प्रवृद्धो निचितं बलासं नुदत्यधस्तादहिताशनस्य । प्रवाहतोऽल्पं बहुशो मलाक्तं प्रवाहिकां तां प्रवदन्ति तज्ज्ञाः ।। प्रवाहिका वातकृता सशूला पित्तात् सदाहा सकफा कफाच्च । सशोणिता शोणितसम्भवा च ताः स्नेहरूक्षप्रभवा मतास्तु ।।
तासामतीसारवदादिशेच्च लिङ्गं क्रमं चामविपक्कता च । अहित सेवियों के वायु के दुष्ट होने पर वह सञ्चित हुए कफ को नीचे की ओर ढकेलता है जिससे बार बार वह कफ मल से युक्त होकर थोड़ा थोड़ा प्रवाहित होता रहता है। इसी को विद्वजन प्रवाहिका कहते हैं।
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