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अग्नि वैकारिकी
६५३ पचता है। उसके पचने से पहले पहल फेनभूत कफोत्पत्ति होती है। कफ नामक धातु की उत्पत्ति आहार के उसी अंश से होती है जो गुरु-शीत-स्निग्धादि गुणों से युक्त होता है । मुख का लालारस उसे अपने में घोल कर कफ धातु को उत्पन्न करता है। ____ आमाशय के आगे कफ के बन जाने पर जो अन्नांश बच जाता है वह अपनी पच्यमानावस्था में पित्तकारक द्रव्यों के द्वारा धातुरूप पित्त को उत्पन्न करता है । ग्रहणी
और तुद्रान्त्र में तथा कुछ आमाशय में भी अम्लभाव के कारण विदग्ध हुआ अन्न पित्तोत्पत्ति का कारण बनता है। ___ अम्लभाव के आगे चुदान्त्र में कटुभाव की उपस्थिति होने से अन्न का यह शेषांश पिण्डीभूत हो जाता और सूख जाता है और उससे वायु नामक धातु की उत्पत्ति होती है।
मुख का लालारस, आमाशय का पाचक अम्ल और ग्रहणी का कटु पाचकपित्त ये क्रमशः मधुर, अम्ल और कटुरसभूयिष्ठ होते हैं। उनसे क्रमानुसार कफ, पित्त और वायु के प्रसाद भाग की उत्पत्ति होती है। प्रसाद भाग के ही साथ साथ मल भाग की भी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार दोष और धातुरूप त्रिदोष की उत्पत्ति अन्न की आम, पच्यमान और पक्वावस्था में अन्न की प्राप्ति, उचित काल, अग्नि के समयोग, वायु, द्रवत्व, स्नेहोपस्थिति आदि कारणों से हुआ करती है।
चरक ने पार्थिवादि पञ्चभूताग्नियों को भी स्पष्ट किया है-- मौमाप्याग्नेयवायव्याः पञ्चोष्माणः सनाभसाः । पञ्चाहारगुणान्स्वान्स्वान्पार्थिवादीन्पचन्ति हि ॥ कि भौम, आप्य, आग्नेय, वायव्य और नाभस ये पाँच अग्नियाँ पञ्चभूतात्मक आहार के पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बने अंश में रहती हैं। पेट में जब यह पञ्चभूतात्मक अन्न पहुँच जाता है तो जाठराग्नि की क्रिया से ये पाँचों भूताग्नियाँ प्रबल हो उठती हैं और अन्न के अपने अपने अंश का पाचन करती हैं। अर्थात् अन्न का परिपाक कफ, वात और पित्तरूप में न होकर पाँचों भूतों के रूप में होता है और ये परिपक्व हुए प्रसाद रूप भूत पञ्चभूतात्मक शरीर में अपने अपने अंश को प्राप्त हो जाते हैं। शरीर के पार्थिव अंश के साथ अन्न का भौमाग्नि द्वारा परिपक्व किया गया भाग मिल जाता है। आप्याग्नि द्वारा परिपक्व तत्व शरीरस्थ जलीयांश में विलीन हो जाता है। आग्नेयांश आग्नेयांश में, वायव्य वायव्य में और नाभस नाभस में चला जाता है।
अन्न के परिपाक से शरीर में सात प्रकार की धातुएँ तैयार होती हैं। रस, रक्त, मांस, मेदस् , अस्थि, मजा और शुक्र इन धातुओं में भी अपनी अपनी अग्नि व्याप्त रहती है । ये अग्नियाँ उनका बराबर परिपाक करती हुई प्रसाद और किट्ट भाग उत्पन्न करती रहती हैं:___ सप्तभिर्देहधातारो धातवो द्विविधं पुनः । यथा स्वमग्निभिः पाकं यान्ति किदृप्रसादतः ।।.. शरीर में गये हुए अन्न का एक एक अंश प्रसादरूप वात पित्त कफ रसादि सप्त धातुओं तक पहुंचता है। धातुएँ अपने अपने स्थानों पर अपनी अपनी अग्नियों द्वारा विशेष विशेष
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