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अर्बुद प्रकरण
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है । यह साधारण और दुष्ट दोनों प्रकार का होता है । कोई भी निर्दोष अर्बुद जब श्लिषीय विहास से युक्त हो जाता है तो उसका सदैव अर्थ उसमें मारात्मकता की उपस्थिति में ही किया जाता है । अण्वीक्षण करने पर हार्टनश्लेष्मक (wharton's (jelly) के समान इसकी रचना देखी जाती है । योजी ऊति की शाखाएँ इस श्लेष्मक में इतस्ततः फैली हुई पाई जाती हैं । इस श्लेष्मक को अभिरंजित भी किया जा सकता है '
नासा या कर्ण के द्वारा व्रणशोधात्मक कणनीय ऊति का जो स्त्राव होता है, जो उनके नीचे की अस्थियों में पाक का परिणाम है, देखने में श्लेष्मार्बुदीय पदार्थ सा होने पर भी पूर्णतः भिन्न वस्तु है । इसी प्रकार काचरीय विहास, श्लेष्माभ विहास अथवा श्लेपाभ ( colloid ) विहास के कारण बने पदार्थ भी श्लेष्मार्बुद से बहुत ही भिन्न होते हैं ।
रचना की दृष्टि से इसके कोशा कोणीय तथा ताराकृतिक ( stellate ) होते हैं जिनके प्रवर्द्धनक एक दूसरे से मिलते हुए होते हैं । कुछ कोशा स्वतन्त्र भी होते हैं । वे तर्कुरूप, अण्डाकार, या गोलाकृतिक भी देखे जाते हैं । इनका अन्तर्कोशीय पदार्थ प्रचुर मात्रा में होता है। वह पूर्णतः समरस, मृदु, श्लिषीय, और पिच्छिल ( viscid ) होता है और उससे बहुलता के साथ श्लेष्मि ( mucin ) बनती हैं। इसमें कितने ही कामरूपाभ कोशा पाये जाते हैं । इसमें रक्तवाहिनियाँ बहुत नहीं होतीं वे सरलतया देखी जा सकती हैं और पृथक् की जा सकती हैं। कभी कभी प्रत्यास्थ कोशा भी देखने में आते हैं ।
प्रत्यक्ष देखने से श्लेष्मार्बुद श्लिषीय पदार्थ के बने होते हैं। वे पाण्डुर आधूसर या आरक्त श्वेत वर्ण के होते हैं । कटे हुए धरातल से चिपचिपा लसदार श्लेष्मीय तरल निकलता है जिसमें अर्बुद के कोशीय तत्व पाये जाते हैं । श्लेष्मार्बुद समीपस्थ रचनाओं से एक बहुत पतले तान्तव प्रावर द्वारा पृथक् हुआ रहता है । इस प्रकार से कई पटियाँ निकल कर इसे कई खण्डिकाओं में बाँट देती हैं ।
श्लेष्मार्बुद धीरे धीरे बढ़ने वाला एक निर्दोष अर्बुद होता है जो कालान्तर में काफी बड़ा आकार भी धारण कर लेता है । यह प्रौढावस्था में होने वाली वृद्धि है ।
श्लेष्मार्बुद के भेद अन्य अर्बुदों के साथ इसके संयोग के आधार पर बनते हैं । सबसे अधिक मिलने वाला श्लेष्मविमेदार्बुद ( myxo-lipoma ) होता है । वैसे श्लेष्मसंकटार्बुद, श्लेष्मतन्वर्बुद, श्लेष्मकास्थ्यर्बुद और श्लेष्मग्रन्थ्यर्बुद भी बनते हैं । विशुद्ध श्लेष्मार्बुद बहुधा नहीं बनता ।
श्लेष्मार्बुद की उत्पत्ति योजी ऊति से ही होती है । विशेष करके यह उपगीय या उपलस्य स्नेह में बहुत बनते हैं। अधिक उपरिष्ठ भागों में बनने पर ये सनाल ( pedunculated ) हो जाते हैं । उपश्लेष्मल अथवा अन्तर्पेशीय ऊति में भी ये बनते हैं । मस्तिष्क में बालश्लेष की आकृति श्लेष्मार्बुद के पदार्थ जैसी ही होती है।
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