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विकृतिविज्ञान __ माता और पुत्र की समप्रतिकारिता (iso-immunisation ) के कारण शिशुओं के अन्य शोणांशिक रोगों का भी पता लगाता जा रहा है। इनमें ए प्रसमूहि. जन के साथ एम तथा एन प्रतिजनों की उपस्थित तथा ए. बी. ओ वर्ग में अन्तर आने से माता और गर्भ के रक्त में प्रतिकायोत्पत्ति होकर ये शोणांशिक रोग बनते हैं पर ह-कारक का सर्वोपरि महत्त्व है। ग्रीन लिखता है कि स्मिथ ने २०० प्रथम प्रसवाओं का अध्ययन किया है। इनमें उसने १५४ में माता और उसकी सन्तान के ह-कारक और ए. बी. ओ. वर्ग को एक समान पाया है। इन्हें उसने समान वैशिष्टय सगर्भता (homospecific pregnancies) नाम दिया है। ४६ में उसने दोनों के रक्त में अन्तर पाया है उन्हें विषमवैशिष्टय सगर्भता (heterospecific pregnancies) कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि आरम्भिक गर्भावस्थाओं में समान वैशिष्ट्य पाया जाता है पर आगे की गर्भावस्थाओं में विपम वैशिष्ट्य की प्रधानता रहती है इसी से माता के प्रथम शिशु में शोणांशीय रोग बहुत कम मिलते हैं जो आगे की गर्भावस्थाओं में बढ़ते जाते हैं । इस विषय पर अभी पर्याप्त अनुसन्धान अपेक्षित है।
रक्तबिम्बाणु ( Blood Platelets ) रुधिराणुओं तथा श्वेतकायाणुओं की तरह रक्तबिम्बाणुओं की उत्पत्ति भी अस्थिमज्जा से ही होती है इन्हें घनास्त्रकोशा ( thrombocyte ) भी कहते हैं। ये बृहन्न्यष्टिकोशाओं ( megacaryocytes) को तोड़कर बनते हैं। इनमें कायाणुरस ( cytoplasm ) होता है पर न्यष्टि नहीं होती। न इनमें शोणवर्तुलि पाई जाती है । ये गोल या अण्डाभ बिम्ब ( disc ) के स्वरूप के होते हैं। स्वस्थावस्था में इनकी संख्या प्रतिघन मिलीमीटर ३ लाख होती है। वैसे २॥ से ३॥ लाख मिला करते हैं। इनका आकार एक रुधिराणु का आधा या एकतिहाई हुआ करता है। रक्तमज्जा के शोणकायरुह ( haemocytoblast) से बृहन्न्यष्टिरुह ( mega. karyoblast ) बनते हैं। उनसे पूर्व बृहनन्यष्टिकोशा पनपते हैं जिनसे बृहन्न्यष्टिकोशा बनते हैं और उन्हीं से रक्तबिम्बाणु तैयार होते हैं (चित्र देखिए)। जब कहीं रक्तस्त्राव होता है तो ये बिम्बाणु टूटकर धौम्बोप्लास्टीनोजीनेज़ ( thromboplasti. nogenase ) को उन्मुक्त कर देते हैं जो रक्तरस में निहित आतंचघटितजन (थ्रोम्बोप्लास्टीनोजिन) को सक्रिय करके थ्रोम्बोप्लास्टीन (आतञ्च घटित ) को बना देते हैं । यह आतञ्चघटित कैल्शियम अयन की उपस्थिति में पूर्वआतंचि को (प्रोथ्रोम्बीन) आतंचि (थ्रोम्बीन ) में परिणत करके रक्तातञ्चन की क्रिया का श्रीगणेश करता है । इस प्रकार बिम्बाणु वाहिनीप्राचीर की सुरक्षा में सदैव तत्पर रहते हैं। ये प्रायः ३-४ दिनतक जीवित रहते हैं उसके बाद नष्ट हो जाते हैं और उनका स्थान अन्य रक्तबिम्बाणु ले लेते हैं।
रक्तबिम्बाणुओं का महत्त्व इस प्रकार रक्तस्त्राव रोकने में होता है। यदि इनकी संख्या किसी कारण से घट जाती है तो सहसा किसी भी स्थान से रक्तस्राव हो
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