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विकृतिविज्ञान का कर्ता होता है। अम्लपित्त की उत्पत्ति में प्रमुख कारण दुर्बलाग्नि है। अब जो हमारे बन्धु आयुर्वेदीय अग्नि को उदनीरिकाम्ल (हाइड्रोक्लोरिक एसिड) मात्र मानकर चलते हैं वे कहाँ टिकते हैं। यदि आमाशयस्थ अम्लमात्र अग्नि होता तो उसकी कमी (दुर्बलामि) अम्लपित्त का जनक कैसे होता ? क्योंकि अम्लपित्त में तो आमाशयिक अम्लता बढ़ती ही है। अतः अग्नि की हमारी कल्पना इससे भिन्न है। पित्त की विदग्धावस्था ही अम्लपित्त की जननी है और पित्त विदग्ध होता है अग्नि के दुर्बल करने वाले कारणों की उपस्थिति में।
कफ की विदग्धावस्था के कारण भी कई रोग उत्पन्न होते हैं और उनमें भी जाठराग्नि की मन्दता का बहुत महत्त्व होता है। यक्ष्मा, प्रतिश्याय और प्रमेहादि की उत्पत्ति में कफ की विदग्धावस्था मुख्य है। यक्ष्मा में अग्नि की दुर्बलता एक महत्व का लक्षण होता है। अतः अग्निमान्द्य ही यक्ष्मा के तैयार करने में प्रधान कारण माना जा सकता है । युक्ताग्नि व्यक्ति जो ठीक खाकर पचा लेता है और जिसके दोष. दुष्यों की अवस्था अग्नि की युक्तता के कारण सम रहती है क्या यक्ष्मा से उपसृष्ट होता है ? यक्ष्मा का दण्डाणु तो हर समय वायुमण्डल में रहता है या रह सकता है पर सभी उससे पीडित नहीं होते। पीडित होंगे दुर्बलाग्नि हो गई है जिनकी वे । अतः यदि हिन्दू जीवन में खान-पान के विषय में विशेष नियन्त्रण और चौका के जटिल नियम बना दिये गये हैं तो वे कहाँ आधुनिक वैज्ञानिक युग के विपरीत पड़ते हैं ? उनका अक्षरशः पालन करने वाला व्यक्ति दुर्बलाग्नि से कदापि पीडित नहीं होगा और इसीलिए हमारे यहाँ अनुलोम यक्ष्मा न मिलकर प्रतिलोम यक्ष्मा मिलती रही है । राजाओं द्वारा अधिक शुक्रनाश जनित दौर्बल्य के प्रभाव से उत्पन्न यमा। खान-पान के नियमों में उपेक्षा बरतने के कारण ही देश में यक्ष्मा बढ़ी है। दुर्बलाग्निवाले युवक अभी अभी ही अधिक बढ़े हैं। पचास वर्ष पूर्व ऐसा नहीं था।
वातसंसृष्ट अन्नविष वात को विदग्ध करके अनेक वातव्याधियों की उत्पत्ति किया करता है । बहुधा जिन व्यक्तियों को एकाङ्ग, अद्धांग, सर्वांगवात मिलती है वे सभी दुर्बलाग्नि होते हैं। वृद्ध प्रायः पक्षाघात से पीडित होते हैं और वाक्य दुर्बलाग्नि का प्रबल द्योतक है। जिन बुड्ढों की अग्नि दीप्त रहती है उन्हें वातविकार अधिक कष्ट प्रदान नहीं करते।
अन्नविष का सम्पर्क मूत्र के साथ होकर मूत्रगत विकार बनते हैं। मल के साथ सम्पर्क आने पर कुक्षि के रोग बनते हैं। रसरक्तादि धातुओं के साथ जब यह अन्नविष चलता है तो विविध धातुओं में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। ___अग्नि के विकार का प्रभाव किस अंग पर नहीं पड़ता? कौन धातु इसके प्रभाव से बची है और दोष तो मानो इसके कोड़े के नीचे नाचते रहते हैं। अतः अग्नि की महत्ता को आयुर्वेदीय वैकारिकी का अध्ययन करने वालों को भले प्रकार हृदयंगम
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