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विकृतिविज्ञान अन्नपाचक भगवान् जाठराग्नि ईश्वर है यह रस को ग्रहण करता है और बहुत सूक्ष्म होने के कारण इसका विवेचन करना सम्भव नहीं है। अग्नि, प्राण, अपान और समान नामक तीन प्रकार की वायुओं द्वारा इसका प्रज्वलन और परिपालन होता है। सुश्रुत ने जाठराग्नि की महत्ता बतलाते हुए दो महत्व को बातें कह दी हैं। एक तो यह कि यह अति सूक्ष्म है इसकी लौ जलती हुई नहीं देखी जा सकती जैसी कि लौकिक अग्नि में देखी जाती है अतः यह एक ऐसी शक्ति है जो अन्न को पकाती है जैसे कि अन्यत्र पाचनकार्य या अग्निकार्य चलता है पर इसका रूप परम सूक्ष्म है । इसके कार्य से ही इसकी उपस्थिति का बोध होता है । दूसरा यह कि यह स्वयं प्राण, समान और अपान इन तीन वातों के द्वारा नियमित रहती है। यह स्वयं अग्नियों का ईश होते हुए भी इसका ईश्वर वायु है अर्थात् इसकी उत्पत्ति और क्रिया शक्ति नर्वस कण्ट्रोल के अन्तर्गत रहती है।
प्रकृतिदृष्टया अग्निविचार चरकने अधोलिखित वाक्य में प्रकृतिदृष्ट्या अग्नि विचार प्रस्तुत किया है
तत्र समवातपित्तश्लेष्मणां प्रकृतिस्थानां समा भवन्त्यग्नयः, वातलानां तु वाताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने विषमा भवन्त्यग्नयः, पित्तलानां तु पित्ताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने तीक्ष्णा भवन्त्यग्नयः, श्लेष्मलानां तु श्लेष्माभिभूते ह्यग्न्यविष्ठाने मन्दा भवन्त्यग्नयः॥
जिन पुरुषों के प्रकृतिस्थ वात, पित्त, कफ ये तीनों दोष समावस्था को प्राप्त होते हैं उनमें अग्नियाँ प्रायः सम रहती हैं। वातलप्रकृति के मनुष्यों में अग्न्यधिष्ठान के वाता. भिभूत होने के कारण वे विषम रहती हैं। पित्तल व्यक्तियों में अग्न्यधिष्ठान के पित्त से अभिभूत होने से अग्नियाँ तीक्ष्ण मिलती हैं। श्लैष्मिक प्रकृति वालों में अग्न्यधिष्ठान के श्लेष्मा से आक्रान्त रहने के कारण अग्नियाँ मन्द रहती हैं।
विकृति विवेचना के लिए प्रकृतियों से परिचय भी परमावश्यक है। लोक में हम किसी को अधिक किसी को थोड़ा और किसी को विषमतया भक्षण करते हुए देखते हैं। उनकी विभिन्न प्रकृतियाँ ही इसका हेतु हैं। जब हम किसी की अग्नि समा. वस्था पर लाना चाहते हैं तो उसका तात्पर्य ही यह है कि जिस प्रकृति का यह है उसी के अनुरूप उसकी अग्नि प्रकृतिस्थ कर दी जावे ।
अग्नि का निवास स्थान इस अग्नि का निवास स्थान आमाशय नाम से स्तनों तथा नाभि के मध्य में स्थित बतलाया गया है। यहाँ आमाशय सम्पूर्ण पचनसंस्थान का द्योतक है जहाँ पर अन्न का परिपाक होता है
नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामाशय इति स्मृतः । अशितं खादितं पीतं लीढं चात्र प्रपच्यते ।। आमाशयगतः पाकमाहारःप्राप्य केवलम् । पक्वः सर्वाशयं पश्चाद् धमनीभिःप्रपद्यते ।।
(चरक वि २)
इन दो सूत्रों में पचनसंस्थान की पूरी कल्पना दी गई है। किस प्रकार सब प्रकार का आहार आमाशय में जाकर पहले पाक को प्राप्त होता है फिर परिपक्व अन्नरस
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