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अग्नि वैकारिकी
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पैत्तिक रोग देखे जाते हैं। विष्टब्धाजीर्ण में सम्पूर्ण अपक्क अन्न कटुभाव को प्राप्त हो जाता है जो उदर में शूल, आध्मान, अनेक वातिक वेदनाएँ, मल और वात की अप्रवृत्ति, स्तम्भ, मोह और अंगपीडन उत्पन्न कर देता है। रसशेषाजीण में उद्गार शुद्धि होने पर भी भोजन की इच्छा का न होना हृदयप्रदेश में गौरव के साथ-साथ प्रसेक का लक्षण भी देखा जाता है।
विसूची, अलसक तथा विलम्बिका ___ अजीर्ण का इतना विचार करने के बाद आगे उसका क्या रूप होता है उसे भी जानना चाहिए। चरक ने जहाँ विविध कुक्षीय विमान में दुर्बलाग्नि का चित्रण उपस्थित करके आमदोष का जिक्र किया है वहाँ
तं द्विविधमामप्रदोषमाचक्षते भिषजो विसूचिकामलसञ्च । के द्वारा विसूची और अलसक का वर्णन आरम्भ कर दिया है । सुश्रुत ने उत्तरतन्त्र में
अजीर्णमामं विष्टब्धं विदग्धञ्च यदीरितम् । विसूच्यलसकौ तस्मात् भवेच्चापि विलम्बिका ।। के द्वारा विसूची, अलसक तथा विलम्बिका इन तीनों का वर्णन किया है। इनमें भी आमाजीर्ण का रूपान्तर विसूचिका में, विष्टब्धाजीर्ण का रूपान्तर अलसक में, तथा विदग्धाजीर्ण का रूपान्तर विलम्बिका में स्पष्टतः कहा है। इस पर कार्तिककुण्ड ने इसी व्यवस्था को ठीक माना है__ आमविष्टब्धविदग्धेपु त्रिषु विसूच्यलसकविलम्बिका यथासंख्यं भवन्ति । डल्हण ने भी
यद्यपि विलम्बिका बाहुल्येन विदग्धाजीर्णाज्जायते, विदग्धाजीर्णाच्च पित्तं दुष्टं न वायुर्दुष्टो भवति न वा श्लेष्मा तथापि पित्तदुष्टया इतरयोरपि दुष्टिः तस्मात् कफमारुताभ्यां दुष्टमित्युक्तम् । पर बकुलकर ने इसमें एक पक्षार्थ शंका का यह उपस्थित की है कि विदग्धाजीर्ण अम्लभाव से उत्पन्न पैत्तिक व्याधि है उससे कफवातज विलम्बिका की उत्पत्ति कैसे सम्भव है___ 'तन्न' इति बहुलकाः यथासंख्ये हि विलम्बिका विदग्धात् प्राप्नोति, तां च कफवाताभ्यां पठिष्यति । तस्या त्रिविधाजीर्णाद्यथासम्भवं विसूच्यादीनामुत्पाद इति युक्तम् । उक्तं हि-अजीर्णात्पवनादीनां विभ्रमो बलवान् भवेत् इति ॥
इस प्रकार तीनों प्रकार के अजीर्णो से ही इन तीनों रोगों की उत्पत्ति सम्भव है. यह मत अधिक युक्तिसम्मत है । इस दृष्टि से
१. कफज विसूची कफज अलसक
आमाजीर्ण से कफज विलम्बिका २. पित्तज विसूची पित्तज अलसक
विदग्धाजीर्ण से तथा पित्तज विलम्बिका
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