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विकृतिविज्ञान
२. दुर्गन्ध्युष्णं वेगवन्मांसतोयप्रख्यं भिन्नं स्विन्नदेहोऽतिरुग्रः।
पित्तात्पीतं नीलमालोहितं वा तृष्णामूर्छादाहपाकज्वरातः ॥ ( सुश्रुत ) ३. पित्तेन पीतमसितं हारिद्रं शादलप्रभम् ।
सरक्तमतिदुर्गन्धं तृणमूस्वेिददाहवान् ।। सशूलं पायुसन्तापपाकवान्.............. ( अष्टाङ्गहृदय ) ४. अरुणं हरितं पोतं नीलं दुर्गन्धसंयुतम् ।
शूलसन्तापपाकाश्च तापश्च करपादयोः ।। मूस्वेिदपिपासाश्च पित्तातीसारलक्षणम् । (चिकित्सासारसिद्धसंग्रह) ५. तेनारुणं पीतमथातिनीलं दुर्गन्धशोषज्वरपाण्डुयुक्तम् ।
भ्रमात्तिमूर्छा च तुषाङ्गदाहः पित्तातिसारस्य च लक्षणानि ।। (हारीत ) ६. पित्तात्पीतमथोष्णनीलमरुणं दुर्गन्धितीक्ष्णं शकृत् ।
स्विन्नाङ्गे विसृजेत्सदाहमसकृत्तड्दाहपाकान्वितः ॥ (वैद्यविनोद ) ७. पित्तात्पीतारुणासितम्
। (अअननिदान) ८. पीतसरक्तमहिमं हरितं सदाहं, मू.तृषाज्वरविपाकमदैरुपेतम् । __ शीघ्रं सृजत्यतिविभिन्नपुरीषमच्छं पित्तातिसार इति तं मुनयो वदन्ति ।। (कल्याणकारक) उपर्युक्त उद्धरणों का विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पैत्तिक अतीसार के सम्बन्ध में निम्नाङ्कित लक्षणों को अधिकांश स्वीकार करते हैं:१. पैत्तिक अतीसार में मल का वर्ण हल्दी का सा, हरा या नीला होता है। काला
या असित तथा अरुण वर्ण का भी मिल सकता है। २. मल अत्यन्त दुर्गन्धित होता है। ३. मल फटा फटा होता है। ४. मल बहुत उष्ण होता है। ५. मलत्याग बड़े वेग से होता है। ६. मल में रक्त भी हो सकता है। ७. मल मांसतोय या शाहल जैसा होता है। ८. पित्तातीसार में प्यास का लगना एक प्रमुख लक्षण है। ९. पित्तातीसारी को दाह बहुत सताता है और हाथ पैरों में जलन पड़ती है। १०. स्वेद का आना भी इस रोग में आवश्यक है। ११. अतीसार के मल में पित्त की तीक्ष्णता के कारण गुदा में हर समय दाह
और पाक का बना रहना एक ऐसा लक्षण है जो इसी रोग में पाया जाता है। १२. उदर में शूल और मलत्याग के समय कुंथन भी होता हुआ देखा जा सकता है। १३. किसी किसी रोगी को ज्वर भी हो जाता है।
१४. पाण्डु, शोष, अविपाक और मद इन चार में से भी कोई लक्षण कभी-कभी पाया जा सकता है। पर पित्तातीसार की विकृति से इनका विशेष सम्बन्ध न होकर स्वतन्त्र व्याधि के अनुबन्ध के रूप में ही इनका अस्तित्व हुआ करता है।
(३) कफज अतीसार कफज अतीसार के लक्षणों में निम्न साहित्य मिलता है
१. तस्य रूपाणि-स्निग्धे श्वेतं पिच्छिलं तन्तुमदामं गुरु दुर्गन्धं श्लेष्मोपहितमनुबद्धशूलमल्पा. ल्पमभीक्ष्णमतिसार्यते सप्रवाहिकं गुरूदरगुदवस्तिवणदेशः कृतोऽप्यकृतसंज्ञः सलोमहर्षः सोत्क्लेशो निद्रालस्यपरीतः सदनोऽन्नद्वेषी चेति श्लेष्मातिसारः । (चरक)
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