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अग्नि वैकारिकी धमनियों के द्वारा सम्पूर्ण शरीर के अन्दर पहुँचता है। चरक चिकित्सा अ० १५ में इसके पचने की सम्पूर्ण क्रिया का उल्लेख किया गया है।
अग्निमान्द्य और आम दोष जिसे चरक ने आम दोष माना है और विविध लक्षण और प्रकार दिये हैं उसी को इतर विद्वानों ने अग्निमान्द्य या अजीर्ण के नाम से प्रकाशित किया है। अजीणं के सम्बन्ध में लिखा हैअनात्मवन्तः पशुवद्भञ्जते येऽप्रमाणतः । रोगानीकस्य ते मूलमजीर्ण प्राप्नुवन्ति हि ॥ (भावप्रकाश)
जो मूर्ख पशुओं के समान बिना प्रमाण के अन्धाधुन्ध भोजन करते हैं वे अनेक रोगों के मूल अजीर्ण को प्राप्त होते हैं। __अजीर्ण के कारणों में भोजन के कई प्रकार विशेष भी अपना हाथ रखते हैं। यथा:
१. समशन-हिताहितकारी द्रव्यों को मिलाकर सेवन करना । २. अध्ययन-पूर्व किये भोजन के पूर्णतया पचने के पहले पुनः भोजन करना ।
३. प्रमृताशन-भूख और प्यास के पूर्णतया नष्ट हो जाने पर और अग्नि के शान्त हो जाने पर भोजन करना।
४. विषमाशन-सात्म्यक्रम के विपरीत और संस्कारित गुणों के विरोध में भोजन करना अथवा कभी थोड़ा, कभी बहुत, कभी किसी काल में और कभी किसी काल में भोजन करना।
५. विरुद्धाशन-दो विपरीत गुण सम्पन्न पदार्थों का एक साथ सेवन जैसे गुड और मूली अथवा दूध और मछली।
६. अजीर्णाशन-अजीर्ण होने पर भी भोजन करना । ७. अत्यशन-अतिमात्र भोजन करना ।
___ अजीर्ण लक्षण चरक ने लिखा हैतस्य लिङ्गमजीणेस्य विष्टम्भः सदनं तथा । शिरोरुक चैव मूर्छा च भ्रमः पृष्ठकटीग्रहः॥ जम्भाङ्गमर्दस्तृष्णा च ज्वरश्छर्दिप्रवाहणम् । अरोचकाविपाकौ च घोरमन्नं विषञ्च तत् ॥ पित्तेन सह संसृष्टं दाहतृष्णामुखामयान् । जनयत्यम्लपित्तं च पित्तजांश्चापरान् गदान् ॥ यक्ष्मपीनसमेहादीन् कफजान् कफसङ्गतम् । करोति वातसंसृष्टं वातजांश्चापरान् गदान् ॥ मूत्ररोगांश्च मूत्रस्थं कुक्षिरोगान् शकृद्गतम् । रसादिभिश्च संसृष्टं कुर्याद्रोगान् रसादिजान् ॥
अजीर्ण के लक्षण कितने व्यापक हो सकते हैं इसका ज्ञान हमें सरलतया चरक ने दिया है। विष्टम्भ, अवसाद, शिरःशूल, मूर्छा, भ्रम, पृष्ठग्रह, कटिग्रह, जृम्भाधिक्य, अङ्गमर्द, तृष्णा, ज्वर, वमन, प्रवाहिका, अरुचि, अविपाक ये सभी इसके अन्दर समाविष्ट हैं ।
वह आमरूप घोर अन्नविष जब पित्त के साथ मिल जाता है तो पित्त का प्रकोप करके दाह, तृष्णा, मुख के विविध रोग, अम्लपित्त तथा अन्य अनेक पैत्तिक विकारों
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