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विकृतिविज्ञान भोजन ले भी लेता है तो अजीर्ण हो जाता है वमन हो जाती है या पेट में दर्द हो जाता है। इस मानसिक सुस्थिति की अनिवार्यता पर सुश्रुत ने लिखा है
शब्दरूपरसान् गन्धान् स्पर्शाश्चमनसः प्रियान् । भुक्तवानुपसेवेत तेनान्नं साधु तिष्ठति ।। कि भोजन करने के बाद मन को प्रिय ऐसे शब्द सुने, रूप देखे, रस चखे, गन्ध संधे और स्पर्शदायक पदार्थादि छुए तो उसका अन्न ठीक प्रकार से पचता है। आचार्य घाणेकर आकाशवाणी (रेडियो) के प्रयोग की मन्त्रणा इसी आधार पर देते हैं।
ईर्ष्या, भय, सङ्कोच, क्रोध, लोभ, चिन्ता, रोग, दीनता, द्वेष, आघातादिक इन सभी में से किसी से भी मन का सन्तुलन नष्ट हो सकता है अतः भोजन के पश्चात् इन मानसिक विकारों में से किसी के भी अधिक उग्र होने से व्यक्ति अजीर्ण से पीडित हो सकता है । चरक ने विमानस्थान में इसी की पुष्टि की है
मात्रयाऽभ्यवहृतं पथ्यं चान्नं न जीर्यति । चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशैया प्रजागरैः॥
अन्न का सम्यक्तया परिपाक न होने से आम की उत्पत्ति होती है। जहाँ-जहाँ आम का संचय हो जाता है उसी-उसी जगह विकारोत्पत्ति होती है साथ ही उसका अन्यत्र भी प्रभाव पड़ता हैयत्रस्थमामं विरुजेत्तमेव देशं विशेषेण विकारजातः। दोपेण येनावततं शरीरं तल्लक्षणेरामसमुद्भवैश्च ।। अर्थात् आमदोष शरीर के जिस विशेष अंग में स्थित हो जाता है उस अंग को अवश्यमेव रोगाक्रान्त कर देता है और जिस प्रकार के दोष से आमदोष का सम्पर्क आता है उस अंग में तथा ( एतेनान्यदेशेऽपि किंचद्रुजं करोतीति से अन्यत्र भी) उस-उस दोष के द्वारा होने वाले प्रकोपक लक्षणों को भी वहाँ उत्पन्न कर देता है।
और इस अजीर्ण की उत्पत्ति में आहार वैषम्य प्रधान कारण माना गया है। यह अजीर्ण ही रोगों का उत्पादक है। यदि अजीर्ण को नष्ट करके अग्नि को समावस्था पर अधिष्ठित करने वाली चिकित्सा की जाय तो रोग भी नष्ट हो ही जाते हैं
प्रायेणाहारवैषम्यादजीर्ण जायते नृणाम् । तन्मूलो रोगसंघातस्तद्विनाशाद्विनश्यति ।। अजीर्ण नष्ट करने के पश्चात् जीर्णाहार की कल्पना साकार करते हुए लिखा गया हैउद्गारशुद्धिरुत्साहो वेगोत्सर्गो यथोचितः। लघुता क्षुत्पिपासा च जीर्णाहारस्य लक्षणम् ॥
___ अजीर्ण और उसके प्रकार सुश्रुत ने आमाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण, विष्टब्धाजीर्ण तथा रसशेषाजीर्ण करके अजीर्ण के चार भेद स्वीकार किए हैं। माधवकर दिनपाकी अजीर्ण तथा प्राकृत अजीर्ण इस प्रकार दो और भेद मिलाकर कुल ६ भेद अजीर्ण के मानते हैं
आमं विदग्धं विष्टब्धं कफपित्तानिलैस्त्रिभिः। अजीर्ण केचिदिच्छन्ति चतुर्थ रसशेषतः ।। अजीर्ण पञ्चमं केचिन्निर्दोष दिनपाकि च । वदन्ति षष्ठं चाजीणं प्राकृतं प्रतिवासरम् ।।
कहना नहीं होगा कि अजीर्ण के इन भेदों के प्रगट करने में बहुत बड़ी बुद्धिमानी का परिचय दिया गया है। इसमें आरम्भिक आमदोष की व्याप्ति से आमाजीर्ण की
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