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विकृतिविज्ञान
भी पड़ा करता है । इसके साथ साथ पाण्डुवर्ण और गहरा हो जाता है । इसे इस रोग का दारुण्यकाल ( period of crisis ) कह सकते हैं। इस अवसर पर रक्त के लालकणों की संख्या द्रुतगति से घटने लगती है क्योंकि उनका विनाश कार्य बढ़ जाता है तथा प्लीहा भी बढ़ने लग जाती है ।
इस रोग में प्लीहाभिवृद्धि प्रायः देखी जाती है। प्लीहा बढ़कर नाभि तक पहुँच जाती है । कभी कभी तो वह नाभि के नीचे चली जाती है। ऐसे बहुत कम रोगी देखे जाते हैं जिनमें प्लीहाभिवृद्धि न मिले ।
इस रोग में पित्ताश्मरियों की उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण है । पित्ताश्मरियाँ ( gall stones ) लगभग ६० प्रतिशत रोगियों में बना करते हैं । ये पैत्तिक शर्करा ( बिलियरी ग्रैविल ) से बनते हैं और इनमें पित्तरक्ति तथा चूर्णातु ( बिलीरुबीन एवं कैल्शियम ) ही होता है । पैत्तव ( कोलेस्टरोल) नहीं पाया जाता है ।
इस रोग में अरक्तता या रक्तक्षय सौम्यस्वरूप का रहता है जिसके कारण रुधिराणुओं की संख्या ३० लाख प्रतिघन मिलीमीटर के नीचे प्रायः नहीं जाती । पर दारुण्यकाल की उपस्थिति पर वह १५ लाख तक जाती हुई देखी जाती है । रोगका गम्भीर रूप होने पर घातक रक्तक्षय से मिलता जुलता रक्तक्षय हो जासकता है। ( ब्वायड ) निगेली का कथन है कि इस रोग में रक्त में सूक्ष्मगुलिकोत्कर्ष ( microspherulosis ) पाया जाता है। जिसका अर्थ यह है कि रक्त का लालकण अपने द्विन्युब्ज स्वरूप ( biconcave shape ) को छोड़ देता है और एक गुलिका की तरह गोल ( spherical ) हो जाता है तथा सूक्ष्मकाय ( microcyte ) हो जाता है। उसके गोल हो जाने से उसका व्यास बढ़ जाता है । व्यास में वृद्धि हो उसकी वृद्धिंगत भंगुरता में कारण बनती है । और यह गुलिकोत्कर्ष ही वह मौलिक आन्तरिक त्रुटि है जो इस रोग के आधार का काम करती है । ये गोल कोशा आसानी से फट जाते हैं। गोल होने के कारण इनका अभिरंजन भी गहरा होता है । पर रंगदेशना स्वाभाविक के आसपास ही रहा करती है ।
अस्थिमज्जा में सन्यष्टि रक्तकणों की क्रियाशक्ति बढ़ जाती है । तथा जालकित लालकों की सक्रियता में भी पर्याप्त वृद्धि देखी जाती है । यही कारण है कि इस रोग में रक्त के अन्दर जितने जालककायाणु ( रैटीक्युलोसाइट्स ) मिलते हैं उतने अन्य किसी रोग में नहीं देखे जाते हैं । जालककायाणु स्वस्थावस्था में ०.५ से १ प्रतिशत तक मिल सकते हैं । वे घातक रक्तक्षय में ५% तक देखे जा सकते हैं पर इस अपित्तमेहिक पाण्डुरोग में १०-२० प्रतिशत मिलना तो साधारण बात है तथा यह तो रही सहज प्रकार के अपित्तमेहिक पाण्डु की बात अवाप्तरूप अपित्तमेहिक पाण्डु में तो यह संख्या ५० प्रतिशत तक पहुँच जाती है । बैरी ने एक रोगी में ९२% तक इनका गणन किया है। किसी किसी रोगी में अथवा एक ही रोगी में कभी कभी इनकी संख्या इतनी बढ़ जाती है कि रक्त में
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वही वही देखे जाते हैं ।
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