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रुधिर वैकारिकी टर्क ने बहुत सुन्दर उपमा देकर कहा है कि यदि शोणांशिक रोगों को पुत्र मानें तो प्लीहा को उनकी माता मानना पड़ेगा। पर इनका जनक एक है या अनेक इसका कोई पता अभी तक नहीं लग सका। शोणांशिक पाण्डु में मुख्यतया गुलिकोत्कर्ष ( spherulocytosis ) होता है । इसी गुलिकोत्कर्ष के कारण लालकणों की भंगुरता बढ़ जाती है तथा उसके कारण शोणांशन की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। अब यदि प्लीहा को शस्त्रकर्म द्वारा निकाल दिया जावे तो कुछ ही दिनों में पाण्डु नष्ट हो जाता है जो फिर कभी भी नहीं लौटता । लाल कणों की संख्या बढ़कर प्राकृतिक तक आ जाती है। तथा मूत्रपित्ति का बहिर्गमन रुक जाता है। इतना सब होने पर भी लालकणों की भंगुरता जहाँ की तहाँ ही बनी रहती है। डौसन ने २७ वर्ष पूर्व जिसका प्लीहोच्छेद हुआ था ऐसे मनुष्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि वह पूर्ण स्वस्थ था पर उसके लालकों की भंगुरता अभी तक प्रकृत से ऊपर रहती थी।
इस भंगुरता के लिए प्लीहा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अधिक उग्र लालकों को उसके अन्तश्छदीय कोशा (जब वे स्रोतसों से होकर गुजरते हैं तब नष्ट कर कर देते हैं । कौन उनमें भंगुरता की वृद्धि करता है यह नहीं ही कहा जा सकता।
लैडररीय प्रकार का तीन शोर्णाशिक रक्तक्षय ( Ledrer type acute haemolytic anaemia)-इसका ज्ञान १९२५ में लैंडरर ने किया था इसमें पाण्डुरता, पाण्डु, दौर्बल्य, ज्वर, शोणांशन द्रुत गति से मिलता है जिसके कारण खूब रक्तक्षय होता है सितकायाणूरकर्ष मिलता है तथा रक्तरहों की संख्या बढ़ जाती है। इसमें लोहोत्कर्ष उपस्थित रहता है। लालकणों की भंगुरता प्रकृत पाई जाती है। इसका कारण अज्ञात है। रक्तावसेचन से इस घातक रोग में पर्याप्त लाभ होता है।
दात्रकोशीय रक्तक्षय ( Sickle cell anaemia) दात्र (हँसिया) के समान अर्द्धचन्द्राकार रूधिराणुओं की उपस्थिति जहाँ होती है वहाँ दात्रकोशीय रक्तक्षय की कल्पना करली जाती है। दात्रकोशीय रक्तक्षय का क्या कारण है इसका पता नहीं लग सका है। साधारण रुधिराणु का यदि हवा तथा आक्सीजन से सम्पर्क कम कर दिया जाय और वातावरण अम्ल बनता चला जावे तो वे अपनी प्रकृत आकृति को खोने लगते हैं और अर्द्धचन्द्राकृतिक होते चले जाते हैं। दात्रकोशीय रक्तक्षय से पीडित में ऐसा क्यों होता है इसका पूरा पूरा पता अभी तक नहीं लग सका है। __यह न केवल कौटुम्बिक ( familial ) अपि तु एक जातिगत (racial ) रोग है। और अफ्रीका के हबशियों में ही पाया जाता है। इसका सर्वप्रथम वर्णन हैरिक ने १९१० में किया था। यह बालकों के शोणांशिक रक्तक्षय तथा शोणांशिक पाण्डु से पर्याप्त मिलता है। यह एक सहज प्रकार का रोग है जो जन्म के समय भी उपस्थित रहता है। यह पैतृक ( hereditary) तथा कौटुम्बिक ( familial) होता है।
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