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रुधिर वैकारिकी
६३६ संस्थान में परमचय अनिवार्यतः पाया जाता है जिसके कारण प्लीहा, यकृत् तथा लसीका प्रन्थियों में परिवृद्धि पाई जाया करती है। अस्थिमज्जा के सितरहीय कोशाओं का परमचय ( hyperplasia of the leucoblastic cells of the bone manow ) भी महत्त्वपूर्ण है जिसके कारण अस्थि की मज्जा का स्थान विस्तृत हो जाता है और अस्थि की सुषिरता बढ़ती जाती है। जिसके कारण अस्थियों में शूलोत्पत्ति भी पाई जाया करती है। इन सितरहीय ऊतियों की अतिशय क्रियाशीलता के कारण रक्तप्रवाह में अप्रगल्भ या अप्रकृत (artificial) श्वेतकोशा बहुत बड़ी संख्या में प्रकट होने लगते हैं। रक्त के अन्दर बहुत बड़ी संख्या में श्वेतकणों या श्वेतकों के पूर्वजों की उपस्थिति का नाम ही ल्यूकीमिया या सितरक्तता दिया जा रहा है। सितरक्तता के साथ साथ रक्तक्षय भी पाया जाता है जो कुछ गम्भीर स्वरूप का होता है। जिसके कारण हृत्पेशी का अजारकीय (anoxaemic ) स्नैहिक विहास तक कर देता है जिसके कारण श्वासकृच्छ्रता (dyspnoea) तथा हृकम्प ( heart palpitation ) उत्पन्न हो जाता है। यकृत् तथा वृक्कों में भी स्नैहिक परिवर्तन उसके कारण देखे जा सकते हैं। सितरक्तता के साथ रक्तस्राव की परम्परा भी जुड़ी रहती है। यह रक्तस्राव श्लेष्मल कलाओं में या लस्यकलाओं में होता है। नाक से बार बार नकसीर फूटने पर ऐसे रोगी के रक्त की परीक्षा करके देखना चाहिए कि कहीं वह सितरक्तता से तो पीडित नहीं है। ऐसे रोगियों में जो दुर्वल और कृश होते चले जाते हैं किसी भी उपसर्ग से पीडित होने की उनमें सदैव आशङ्का बनी रहा करती है। ज्वर भी इस रोग में मिल सकता है वह तीव्रसितरक्तता में विशेषरूप से पाया जाता है और अन्यत्र भी मिलता है । रक्त के कोशाओं की अत्यधिक टूट फूट के कारण रक्त की तथा मूत्र की मिहिकाम्ल राशि (uric acid content) में काफी वृद्धि देखी जाया करती है। कभी कभी मण्डाभविह्रास भी देखा जाया करता है।
सितरक्तता तीन प्रकार के सितकोशाओं की बहुधा मिला करती है१. कणात्मकसितकोशाजन्य । २. लसीय सितकोशाजन्य, तथा ३. एककायाणु सितकोशाजन्य ।
उपरोक्त तीनों प्रकार की सितरक्तताओं के तीव्र और जीर्ण दोनों ही स्वरूप देखने में आते हैं। कणीय सितकोशाओं का जन्म अस्थिमज्जा से होता है। लसकायाणु की उत्पत्ति लसग्रन्थियों एवं शरीरस्थ लसाभ ऊति से होती है तथा एक कायाणुओं की उत्पत्ति जालकान्तश्छदीय संस्थान से हुआ करती है। अब हम विविध सितरक्तताओं का वर्णन संक्षेप में इसलिए करते हैं कि पाठक उनसे परिचित हो सकें
मज्जाजन्य सितरक्तता
(Myelogenous Leukaemia ) यह तीव्र और जीर्ण दोनों रूपों में हो सकता है पर तीव्र रूप बहुत ही कम मिलता है। तीव्र रूप एक या दो मास तक रहता है इसमें रक्तस्रावीय प्रवृत्ति बहुत
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