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विकृतिविज्ञान
दो एक बार की गड़बड़ी को बर्दाश्त कर लेता है । पर निरन्तर गड़बड़ अग्नि की समावस्था को बिगाड़ देती है अस्तु
तस्मात् तं विधिवद्द्युक्तैरन्नपानेन्धनैर्हितैः । पालयेत् प्रयतस्तस्य स्थितौ त्वायुर्बलस्थितिः ॥ अग्नि के दूषित होने के निम्न अन्य कारण दिये गये हैं
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अभोजनादजीर्णांतिभोजनाद्विषमाशनात् । असात्म्यगुरुशोतातिरूक्षसन्दुष्टभोजनात् ॥ विरेकवमनस्नेहविभ्रमाद् व्यापिकर्षणात् । देशकालर्तुवैषम्याद् वेगानां च विधारणात् ॥ दुष्यत्यग्निः स दुष्टोऽन्नं न तत् पचति लभ्यपि । अपच्यमानं शुक्तत्वं यात्यन्नं विषताञ्च तत् ॥ अपक और शुक्तता को प्राप्त अन्न आमविष के लक्षण उत्पन्न करने में समर्थ हो जाता है ।
चतुर्विध जाठराग्नि
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चरक ने जिन चार प्रकार की अग्नियों का वर्णन किया है वह इस प्रकार है( १ ) विषमो धातुवैषम्यं करोति विषमं पचन् । तीक्ष्णो मन्देन्धनो धातून् विशोषयति पावकः ॥ युक्तं भुक्तवतो युक्तो धातुसाम्यं समं पचन् । दुर्बलो विदत्यन्नं तद् यात्यूर्ध्वमधोऽपि वा ॥ इसी को अन्यत्र निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है
( २ ) अग्निषु तु शारीरेषु चतुर्विधो विशेषो बलभेदेन भवति तद्यथा - तीक्ष्णो मन्दः समो विषम इति । तत्र तीक्ष्णोऽग्निः सर्वापचारसहः, तद्विपरीतलक्षणो मन्दः समस्तु खल्वपचारतो विकृतिमापद्यतेऽनपचारतस्तु प्रकृताववतिष्ठते, समलक्षणविपरीतलक्षणस्तु विषमः इत्येते चतुर्विधा भवन्त्यग्नयश्चतुर्विधानामेव पुरुषाणाम् ॥
विषमो वातजान् रोगाँस्तीक्ष्णः पित्तनिमित्तजान् । करोत्यग्निस्तथा मन्दो विकारान् कफसम्भवान् ॥ समा समाग्नेरशिता मात्रा सम्यग्विपच्यते । स्वल्पाऽपि नैव मन्दाग्नेर्विषमाग्नेस्तु देहिनः ॥ कदाचित्पच्यते सम्यक्कदाचिन्न विपच्यते । मात्राऽतिमात्राऽप्यशिता सुखं यस्य विपच्यते ॥ तीक्ष्णाग्निरिति तं विद्यात् समाग्निः श्रेष्ठ उच्यते ॥
अर्थात् बलभेद से वह अग्नि चार प्रकार की होती है
विषमाग्नि - यह समाग्नि के विपरीत लक्षण वाली होती है धातुओं के साम्य को दूर करके विषमता उत्पन्न करती हुई विषमतया आहार का पाचन करती तथा इसके कारण वातकारक रोग होते हैं। विषमाग्नि कभी तो भोजन को पचा देती है और कभी नहीं पचाया करती ।
सहने वाली होती है।
ईंधन को भस्मीभूत शरीरस्थ धातुओं को
तीक्ष्णाग्नि- यह सर्वापचारसह अर्थात् सब अपथ्यों को भुक्त आहार को उसी प्रकार पका देती है जैसे तीक्ष्ण अग्नि कर डालती है । जब भुक्त अन्न पच जाता है तो फिर वह जलाने लगती हैं जिसके कारण शरीर दुर्बल होता हुआ चला जाता है । तीच्णाग्नि पित्तकारक होती है और पैत्तिक रोगों की कर्त्री मानी जाती है । यह कितना ही भोजन किया हो सबको पचा डालती है ।
समाग्निया युक्ताग्नि - सदैव श्रेष्ठ मानी जाती है । यह अपथ्य से बिगड़ती और पथ्यपूर्वक रहने पर ठीक रहती है यह भुक्तान्न को ठीक ठीक पचा कर धातु
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