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अग्नि वैकारिकी
६५३ कामना किया करता है। आयुर्वेदीय वैकारिकी का इस पृष्ठभूमि को बिना समझे समझना नितान्त भ्रमोत्पादक है। अत्यधिक मात्रा में भोजन करना यह सर्व दोष प्रकोपक माना गया है। जो व्यक्ति तृप्तिपूर्वक ठोस पदार्थों का सेवन करके फिर ऊपर से द्रवों को आकण्ठ पी लेता है तो उसके आमाशयगत वात-पित्त-कफ अत्यधिक भोजन कर लेने के कारण पीड़ित होकर युगपत् ( एकसाथ) प्रकुपित हो जाते हैं। उस अधिक भोजन किए हुए प्राणी के अन्दर वे प्रकुपित हुए दोष कुक्षि के एक देश में प्रवेश करके उस अपक्क अन्न को विदग्ध या विष्टब्ध कर देते हैं। अथवा उसे सहसा उत्तर मार्ग से (मुख द्वारा) या अधोमार्ग से (गुद द्वारा) निकाल देते हैं और इन विकारों की उत्पत्ति करते हैंवातविकार-शूल, आनाह, अङ्गमद, मुखशोष, मूर्छा, भ्रम, अग्निवैषम्य,
सिराकुञ्चन, संस्तम्भन । पैत्तिकविकार-ज्वर, अतिसार, अन्तर्दाह, तृष्णा, मद, भ्रम, प्रलपन । श्लैष्मिकविकार-छर्दि, अरोचक, अविपाक, शीतज्वर, आलस्य, गात्रगौरव ।
आमदोष और उनके गुण अष्टविध आहारविशेषायतनों, आहारसाद्गुण्यों तथा अन्य आहारसम्बन्धी नियमों का पालन न करने और अतिमात्र भोजन करने से आहार का पाचन नहीं हो पाता। वह अपक्कावस्था में ही रह जाता है। इसी को आमावस्था कहते हैं। आहार का आमदोष ही अग्निनाश का मुख्य कारण हुआ करता है। अतिमात्र आहार के अतिरिक्त अन्य कारण भी इस आमदोष के कारण चरक ने लिखे हैं:
न खलु केवलमतिमात्रमेवाहारराशिमात्रप्रदोषकालमिच्छन्ति । अपि तु खलु गुरुरूक्षशीतशुकविष्टम्भिविदाह्याशुचिविरुद्धानाम् अकालेऽन्नपानानामुपसेवनम् कामक्रोपलोभमोहेाहीशोकमानोद्वेगभयोपतप्तमनसा वा यदन्नपानमुपयुज्यते तदप्याममेव प्रदूषयति ।
इन कारणों में जहाँ उसने भारी, रूखे, ठण्डे, बासी, सूखे, कब्ज करने वाले, जलन उत्पन्न करने वाले, पवित्रता से रहित, परस्परविरोधी अन्नों के सेवन से आमदोष की उत्पत्ति सिद्ध की है वहाँ उसने अकाल में भोज्य करने से भी आमदोष उत्पन्न हुआ माना है और मनोवैज्ञानिक स्थितियों को भी इस ओर बढ़ने में मुख्य कारण माना है। काम-क्रोध-लोभ-मोह-ईर्ष्या-लज्जा-शोक-मान-उद्वेग-भय आदि से मन के उपतप्त हो जाने से भी आमदोष हो सकता है।
मनोवेग विकारपूर्ण हों तो फिर सम्पूर्ण आहारीय नियमन के सिद्धान्त पालन करने पर भी रोगोत्पत्ति या आमोत्पत्ति नहीं रुकती
मात्रयाप्यभ्यवहृतं पथ्यञ्चान्नं न जोर्यति । चिन्ताशोकभयकोषदुःखमोहप्रजागरैः॥
केवल एक बार अधिक भोजन करने से या नियमों के तोड़ने से आमदोषोत्पत्ति नहीं होती। उसके लिए आमदोषकर परिस्थितियाँ बराबर बनती रहती हैं और परिणामस्वरूप अग्नि मन्द होने लगती है। जिसकी अग्नि समावस्था पर है वह तो
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