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अग्नि वैकारिकी
६५५ साम्यावस्था रखकर स्वस्थावस्था की जनयित्री होती है। हर चिकित्सक अग्नि की समावस्था लाने का यत्न करता है। जब तक यह समाग्नि नहीं जागती तब तक शरीर निरन्तर रोग से व्याप्त रहता है।
फिर मन्दाग्नि या दुर्बलाग्नि का विचार आता है । जो तीक्ष्णाग्नि के विपरीत लक्षण वाली होती है। भुक्त अन्न अग्नि की मन्दता के कारण विदग्धावस्था को प्राप्त हो जाता है । थोड़ा सा भी आहार बिना पचे ऊर्ध्वभाग से या अधोभाग से निकल जाता है या वहीं रहकर अन्नविषता उत्पन्न करता है।
समाग्नि की श्रेष्ठता समाग्निः श्रेष्ठ उच्यते यह शास्त्रकारों का कथन है। स्वस्थ के लक्षणों का वर्णन करते समय भगवान् धन्वन्तरि ने समदोषः के साथ समाग्निश्च भी कहा है। अतः समाग्नि का शरीर के स्वास्थ्य से महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। समाग्नि की परिभाषा लिखते हुए मधुकोषकार लिखते हैं
__ समा उचिता, मात्रा आहारस्य, सम्यग्यस्य विपच्यते स समाग्निः । इसी को दूसरे शब्दों में___ अतिमात्रमजीर्णेऽपि गुरुं चान्नमथाश्नतः । दिवाऽपि स्वपतो यस्य पच्यते सोऽग्निरुत्तमः ॥ कहा गया है। वही अग्नि इस पद्यकार ने उत्तम मानी है जो अधिक मात्रा में भोजन करे, अजीर्ण में भी खाय, भारी अन्न खाया जाय और दिवास्वप्न करने पर भी जो सब खाना पचा दे।
सुश्रुतादिक जाठराग्नि के प्रकार । प्रागभिहितोऽग्निरन्नस्य पाचकः । स चतुर्विधो भवति-दोषानभिपन्न एकः, विक्रियामापन्नस्त्रिविधो भवति विषमो वातेन, तीक्ष्णः पित्तेन, मन्दः श्लेष्मणा, चतुर्थः समः सर्वसाम्यादिति ।
(सुश्रुत सू. अ. ३५) अर्थात् पूर्व ही यह कहा जा चुका है कि पाचक अग्नि अन्न का पाचक है। वह चार प्रकार की होती है-एक दोषरहित और तीन विकार युक्त । सविकार तीन प्रकारों में वात से विषमाग्नि पित्त से तीक्ष्णाग्नि और श्लेष्मा से मन्दाग्नि । चौथी दोषरहित अग्नि समाग्नि कहलाती है जो दोषों की साम्यावस्था के द्वारा उत्पन्न होती है।
ऊपर जो ४ प्रकार की जाठराग्नियों का नामोल्लेख आया है उन्हीं के लक्षणों का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि:
तत्र यो यथाकालमुपयुक्तमन्नं सम्यक् पचति स समः, समैर्दोषैः, य कदाचित् सम्यक् पचति कदाचिदाध्मानशूलोदावर्तातिसारजठरगौरवान्त्रकूजनप्रवाहणानि कृत्वा स विषमः, यः प्रभूतमप्युप
१. तच्चादृष्टहेतुकेन विशेषेग पक्कामाशयमध्यस्थं पित्तं चतुर्विधमन्नपानं पचति विवेचयति च दोषरसमूत्रपुरीषाणि तत्रस्थमेव चात्मशक्त्या शेषाणां पित्तस्थानानां शरीरस्य चाग्निकर्मणाऽनुग्रहं करोति तस्मिन् पित्ते पाचकोऽग्निरिति संज्ञा । (सु. सू. स्था. अ. २१)
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